संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आत्मवादी के लिए कोई 'दूसरा' नहीं होता और अनात्मवादी के लिए कोई 'एक' नहीं होता। एक बाहर देखता है और एक भीतर। जो भीतर उतरा, उसने पाया अभेद और जो बाहर खोजता रहा उसने पाया भेद। असुर और देवता एक आत्मद्रष्टा ऋषि के पास पहुंचे। ऋषि से आत्मबोध की याचना की। संत ने कहा-'तत्त्वमसि' जिसे खोज रहे हो वह तुम ही हो। दोनों चले आए। दोनों को संतोष हो गया कि यह देह ही आत्मा है। दोनों भोग-विलास में मस्त हो गए। किन्तु देवता को संतोष नहीं हुआ। उसे लगा-गुरु संत इस शरीर के लिए नहीं कह रहे हैं। यह शरीर तो प्रत्यक्ष मरणधर्मा है। वह आया और पूछा-क्या आपका अभिप्राय आत्मा शब्द से शरीर से है? किन्तु शरीर विनश्वर है, आत्मा नहीं। संत ने उसी तत्त्व का उपदेश फिर दिया वह तू ही है। प्राण के विषय में सोचा, किन्तु लगा प्राण तो उससे ही स्पंदित होते हैं। वह न हो तो प्राणों का क्या मूल्य! फिर मन के संबंध में सोचा। मन चंचल हैं। प्रतिक्षण बदलता रहता है। वह आत्मा तो अपरिवर्तनीय है। मैं मन से पार जो अनंत शक्ति सम्पन्न, अजर, अमर है 'वह हूं।' जिज्ञासा से अपने भीतर जो था उसे खोज लिया। असुर देह पर रुक गए। देवता मंजिल पर पहुंच गए। देवता अभेद में जीने लगे और असुर द्वैत में।
महावीर का यह स्वर पूर्ण अद्वैतवाद का है। वे कह रहे हैं-दूसरा कोई नहीं है। किन्तु जिनकी प्रज्ञा-चक्षु निमीलित है, वे बाह्य भेद के आधार पर दूसरों का उत्पीड़न करते हैं, शोषण करते हैं। उन्हें अपने अधीनस्थ बनाते हैं और उन पर अनुशासन करते हैं। वस्तुतः वे स्वयं की हिंसा करते हैं; स्वयं को पीड़ित करते हैं। स्वयं की असत् प्रवृत्ति से स्वयं ही बंधन में फंसते हैं। प्रत्येक आत्मा पूर्ण स्वतंत्र है। दूसरों के निमित्त से हम अज्ञानवश स्वयं को दंड देते हैं। ज्ञान के प्रकाश में गल्ती करने वाला दंडनीय है। उसे बोध नहीं है। वह तो करुणा का पात्र है। उस पर क्रोध कर स्वयं को दंड नहीं दिया जाए। खलील जिब्रान ने कहा है- 'अच्छी तरह आंख खोलकर देख, तुझे हर सूरत में अपनी सूरत नजर आएगी। अच्छी तरह कान खोल कर सुन, तुझे हर आवाज में अपनी आवाज सुनाई देगी।'
३२. परिणामिनि विश्वेऽस्मिन्, अनादिनिधने ध्रुवम्।
सर्वे विपरिवर्तन्ते, चेतना अप्यचेतनाः।।
यह संसार नाना रूपों में निरंतर परिणमनशील और आदि-अंत रहित है। इसमें चेतन और अचेतन सब पदार्थों की अवस्थाएं परिवर्तित होती रहती है।
मेघः प्राह
३३. उत्पादव्ययधर्माणो, भावा ध्रौव्यान्विताः तदा।
किमात्मा शाश्वतो देहोऽशाश्वतो विद्यते विभो!
मेघ बोला-प्रभो! सब पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य धर्म युक्त हैं, तब फिर आत्मा शाश्वत और देह अशाश्वत क्यों ?