श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

पर उसके सामने तो जगत् पिता खड़े हैं। उसकी आखें सामने की ओर उठीं और उसका अन्तःकरण बोल उठा; 'ओह! भगवान् महावीर आ रहे हैं।'
वह हर्षातिरेक से उत्फुल्ल हो गई। उसकी आखों में ज्योति-दीप जल उठे। उसका कण-कण प्रसन्नता से नाच उठा। वह विपदा को भूल गई।
भगवान् उसके सामने जाकर रुके। उन्होंने देखा, यह वही वसुमती है, जिसके देन्य की प्रतिमा मेरे मानस में अंकित है। केवल आंसू नहीं हैं। भगवान् वापस मुड़े। चन्दना की आशा पर तुषारापात हो गया। उसके पैरों से धरती खिसक गई। आंखों में आंसू की धार बह चली। वह करुण स्वर में बोली, 'भगवन्! मेरा विश्वास था, तुम नारी जाति के उद्धारक हो, दास-प्रथा के निवारक हो। पर मेरे हाथ से आहार न लेकर तुमने मेरे विश्वास को झुठला दिया। इस दीन दशा में मैं तुम्हें ही अपना मानती थी। तुम मेरे नहीं हो, यह तुमने प्रमाणित कर दिया। बुरे दिन आने पर कौन किसका होता है? मैंने इस शाश्वत सत्य को क्यों भुला दिया?'
चन्दना का मन आत्म-ग्लानि से भर गया। वह सिसक-सिसक कर रोने लगी।
भगवान् ने मुड़कर देखा- मेरे संकल्प की शर्तें पूर्ण हो चुकी हैं। वे फिर चन्दना के सामने जा खड़े हुए। उसने उबले हुए उड़द का आहार भगवान् को दिया। उसके मन में हर्ष का इतना अतिरेक हुआ कि उसके बंधन टूट गए। उसका शरीर पहले से अधिक चमक उठा।
'भगवान् ने धनावह श्रेष्ठी की दासी के हाथ से आहार ले लिया'- यह बात बिजली की भांति सारे नगर में फैल गयी। हजारों-हजारों लोग धनावह के घर के सामने एकत्र हो गए। दासवर्ग हर्ष के मारे उछलने लगा। महाराज शतानीक भी वहां पहुंच गए। महारानी मृगावती उसके साथ थी। नन्दा हर्ष से उत्फुल्ल हो रही थी। अमात्य भी एक बहुत बड़ी चिन्ता से मुक्त हो गया।
धनावह लुहार को साथ लिये अपने घर पहुंचा। वह अनेक प्रकार की बातें सुन रहा था। उसका मन आश्चर्य से आंदोलित हो गया। उसने भीतर जाकर देखा - चन्दना दिव्य-प्रतिमा की भांति अचल खड़ी है। वह हर्ष-विभोर हो गया।
अब चन्दना के बारे में लोगों की जिज्ञासा बढ़ी। वे उसके दर्शन को लालायित हो उठे। वह घर से बाहर आई। चन्दना के जय-जयकार के स्वर में जनता का तुमुल विलीन हो गया।
सम्पुल महाराज दधिवाहन का कंचुकी था। चम्पा-विजय के समय महाराज शतानीक उसे बन्दी बना कौशांबी ले आए थे। वह आज ही राजाज्ञा से मुक्त हुआ था। वह महाराज के साथ आया। उसने चन्दना को पहचान लिया। वह दौड़ा। चन्दना के पैरों में नमस्कार कर रोने लगा। चन्दना ने उसे आश्वस्त किया। दोनों एक दूसरे को देख अतीत के गहरे चिन्तन में खो गए।
महाराज ने कंचुकी से पूछा, 'यह कन्या कौन है?
'कंचुकी ने कहा, 'महाराज दधिवाहन की पुत्री वसुमती है।'
मृगावती बोली, 'तब तो यह मेरी बहन की पुत्री है।'
महाराज ने चन्दना से राजप्रासाद में चलने का आग्रह किया। उसने उसे ठुकरा दिया। महारानी ने फिर बहुत आग्रह किया। चन्दना ने उसे फिर ठुकरा दिया। महारानी ने चन्दना की ओर मुड़कर पूछा, 'तुम हमारे प्रासाद में क्यों नहीं चलना चाहती?
'दासी की अपनी कोई चाह नहीं होती।'
'तुम दासी कैसे?
'यह तो महाराज शतानीक ही जानें, में क्या कहूं?
महाराज का सिर लज्जा से झुक गया। उसे अपने युद्धोन्माद पर पछतावा होने लगा। वह चंदना के दासी बनने का कारण समझ गया। उसने धनावह को बुलाया। चंदना सदा के लिए दासी-जीवन से मुक्त हो गई। भगवान् का मौन सत्याग्रह दासी का मूल्य बढ़ाकर दासत्व की जड़ पर तीव्र कुठाराघात कर गया।