धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

तीसरा गुणस्थान अध्यात्म को वह भूमिका है जहां मिथ्यात्व आश्रव अपूर्ण रहता है। वहां सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिश्रण की स्थिति होती है। पहले गुणस्थान की अपेक्षा वहां मिथ्यात्व आश्रव अल्प होता है इसलिए उसे तीसरी भूमिका में रखा गया है।
चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व आश्रव बिलकुल नहीं रहता।
पांचवें गुणस्थान में अव्रत आश्रव आंशिक रूप से निरुद्ध हो जाता है, इसलिए उसे विरताविरत या देश विरत गुणस्थान कहा जाता है।
छठे गुणस्थान में अव्रत आश्रव सर्वथा निरुद्ध हो जाता है। वहां से साधुत्व की भूमिकाएं प्रारम्भ हो जाती हैं।
सातवां गुणस्थान वह भूमिका है जहां प्रमाद आश्रव भी निरुद्ध हो जाता है। यहां से आगे कषाय आश्रव के अल्पीकरण की भूमिकाएं प्रारम्भ हो जाती हैं।
आठवें गुणस्थान में कषाय आश्रव पतला रहता है। यहां से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का अस्तित्व नहीं रहता।
नवें गुणस्थान में कषाय और पतला हो जाता है। इसके प्रारम्भ में संज्वलन चतुष्क तथा अन्त में केवल लोभ ही रहता है।
दसवें गुणस्थान में लोभ और भी सूक्ष्म हो जाता है। इस प्रकार इन तीन गुणस्थानों में कषाय आश्रव की क्रमशः अल्पता होती जाती है।
ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय अथवा मोह सर्वथा उपशान्त अवस्था में रहता है। उसकी सत्तामात्र रहती है।
बारहवें गुणस्थान में कषाय अथवा मोह सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसकी सत्ता भी नहीं रहती। वहां केवल योग आश्रव ही रहता है।
तेरहवें गुणस्थान में योग आश्रव भी कृशत्व को प्राप्त हो जाता है। वहां मन का उस रूप में प्रयोग नहीं होता जिस रूप में एक श्रुतज्ञानी विचार विमर्श में करता है। ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम जनित समनस्कता भी वहां नहीं रहती। इस गुणस्थान के अन्त में योग प्रायः समाप्त हो जाता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय कर्म का क्षय इस गुणस्थान की मौलिकता है।
चौदहवें गुणस्थान में योग आश्रव सर्वथा निरुद्ध रहता है। वहां कोई भी आश्रव नहीं रहता।
इस प्रकार गुणस्थान का आधारभूत तत्त्व है आश्रव का क्रमिक निरोध।
भावाः स्वरूपं जीवस्य (सान्निपातिक भाव)
भाव का शाब्दिक अर्थ है– होना। जैन दर्शन में पांच भाव बतलाए गए हैं– औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक। औदयिक भाव आठ कर्मों के उदय से सम्बन्धित है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव कर्म के विलय से निष्पन्न होने वाली जीव की अवस्थाएं हैं।
पारिणामिक भाव व्यापक है, सर्वत्रव्यापी है। वह कर्मों के उदय-विलय तक
ही सीमित नहीं है, वह कर्मातीत भी है। जीव में जीवत्व है। किसी जीव में मोक्ष-प्राप्ति की अर्हता है, वह भव्य है। किसी जीव में वह अर्हता नहीं है, वह अभव्य है। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीनों पारिणामिक भाव हैं। उनका कर्मों के उदय
अथवा विलय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। कर्मों को बांधा और तोड़ा जा सकता
है, किन्तु जीवत्व आदि को पुरुषार्थ के द्वारा न प्राप्त किया जा सकता है और न नष्ट किया जा सकता है। यह एक स्वाभाविक स्थिति है, अनादि पारिणामिक भाव है। धर्मास्तिकाय आदि छहों द्रव्य अनादि पारिणामिक भाव हैं। उनका पर्याय परिवर्तन सादि पारिणामिक भाव है।
मोह कर्म का उदय आत्म-पतन का और उसका क्षयोपशम, उपशम, क्षय आत्मोन्नयन का हेतु बनता है। कहा भी गया है-'ऊजला नें मेला कह्या जोग, मोहकर्म संजोग विजोग' मोहकर्म का साहचर्य पाकर जीव की प्रकृति अशुभ और उसके दूर रहने पर शुभ बनती है।