अनासक्ति से होती है कर्म मुक्ति की साधना : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अनासक्ति से होती है कर्म मुक्ति की साधना : आचार्यश्री महाश्रमण

भिक्षु गण के एकादशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आगम वाणी का रसास्वाद कराते हुए फरमाया कि आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है। जब तक जीवन रहता है, तब तक शरीर आत्मा युक्त रहता है। जब यह शरीर आत्मा से वियुक्त हो जाता है, तो फिर जीवन नहीं रहता। जीवन को चलाने के लिए व्यक्ति को प्रवृत्ति करनी होती है। प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है—एक रागयुक्त प्रवृत्ति, आसक्ति युक्त प्रवृत्ति; दूसरी आसक्ति मुक्त, वीतरागता की प्रवृत्ति। वीतरागता युक्त प्रवृत्ति ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान तक रहती है। ग्यारहवें गुणस्थान को वीतराग का गुणस्थान कहा जाता है। ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय उपशांत रहता है और बारहवें गुणस्थान में कषाय क्षय हो जाता है। ग्यारहवां गुणस्थान बंद गली के समान है। इसमें जो जाएगा, उसे वापस लौटना ही पड़ेगा। बारहवें गुणस्थान में चला गया तो लौटना नहीं पड़ेगा, बल्कि आगे बढ़ना ही होगा।
ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें—इन तीनों गुणस्थानों में प्रवृत्ति होती है, तो भी पाप कर्म का बंध नहीं होगा, क्योंकि वहां मोह का संयोग नहीं होता। चौदहवें गुणस्थान में तो प्रवृत्ति होती ही नहीं। केवलज्ञानी दो प्रकार के होते हैं—सयोगी केवली और अयोगी केवली। कहा गया है कि कर्मों के बंधन से बचने के लिए अनासक्त रहो। यदि बंध होगा भी तो हल्का-फुल्का होगा, जैसे सूखी मिट्टी का गोला दीवार पर नहीं चिपकता, लेकिन गीली मिट्टी का गोला चिपक सकता है। जो आसक्ति युक्त होकर भोगों में लिप्त हैं, उनके पाप कर्म चिपक जाते हैं।
गृहस्थ लोग परिवार और समाज में रहते हुए भी अनासक्त रहें, जैसे धायमाता जानती है कि मैं जिस बच्चे की सेवा कर रही हूँ, वह मेरा नहीं है। मेरी आत्मा मेरी है। मेरा कर्म मुझे ही भोगना पड़ेगा। कुण बेटो कुण बाप - करणी आपो आप, अर्थात अपनी करणी का फल स्वयं को ही भोगना होता है। निंदा-प्रशंसा की परवाह न करें, बल्कि विवेक बनाए रखें। धर्म से जुड़ी प्रवृत्ति करें। समता भाव की साधना हमारे लिए उपयुक्त है। भोजन भी शरीर को पोषण देने के लिए करने का प्रयास करना चाहिए। बहुत ज्यादा आसक्ति के साथ भोजन करने से बचने का प्रयास करना चाहिए। जो भी प्राप्त हो गया, उसमें अनासक्ति रखने का प्रयास करना चाहिए। आसक्ति बंधन का एक बड़ा कारण है। कमल की तरह जल में रहकर भी निर्लिप्त रहने का प्रयास करें, यही प्रशंसनीय है। मंगल प्रवचन के उपरांत समणी चैतन्यप्रज्ञाजी ने अपने उद्गार व्यक्त किए। मर्यादा महोत्सव व्यवस्था समिति के अध्यक्ष कीर्तिभाई संघवी, भुज सभा के अध्यक्ष वाणीभाई मेहता व आदर्श कीर्ति संघवी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।