
गुरुवाणी/ केन्द्र
साध्य के साथ साधन भी होना चाहिए शुद्ध : आचार्यश्री महाश्रमण
महान यायावर आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ लगभग लगभग 10 कि.मी. का विहार कर भिलोड़ा के मातुश्री नवीबाई रामजी आशर विद्यालय में पधारे। अमृतमय देशना से सभी को लाभान्वित करते हुए भविष्यदृष्टा आचार्यश्री ने फरमाया कि व्यक्ति के भीतर भय की वृत्ति हो सकती है तो अभय का भाव भी हो सकता है। भय एक दुर्बलता है। व्यक्ति बीमारी, मृत्यु आदि अनेक संदर्भों में भयग्रस्त हो सकता है। कभी-कभी वह दूसरों को डराने का भी प्रयास करता है, किंतु जो दूसरों को डराता है, कभी न कभी स्वयं भी किसी भय का शिकार हो सकता है। डरने और डराने के अलग-अलग स्तर हो सकते हैं। कुछ परिस्थितियों में डरना या डराना भी लाभप्रद हो सकता है, परंतु अंततः मोक्ष की प्राप्ति के लिए भय से मुक्त होना आवश्यक है। व्यक्ति को पाप का भी भय होता है — कि कहीं मेरे किसी कार्य से पाप का बंध न हो जाए।
'न डराना' — यह अहिंसा का भाव है। अहिंसा और संयम आधारित साधन से कार्य किया जाए। हितोपदेश के माध्यम से सामने वाले को सही मार्ग पर लाने का प्रयास हो। कभी-कभी भय के कारण भी व्यक्ति अनुचित कार्य करने से बच जाता है। साध्य के साथ-साथ साधन भी शुद्ध होना चाहिए। साध्य यदि शांति है, तो उसके लिए शुद्ध साधन होना चाहिए, यद्यपि कुछ परिस्थितियों में कठोरता का प्रयोग भी आवश्यक हो सकता है। यदि कोमल उपायों से कार्य सिद्ध न हो, तो थोड़ी कठोरता अपनानी पड़ सकती है। जब कोई कठोरता उच्च उद्देश्य की प्राप्ति हेतु हो, तो उसे स्वीकार किया जा सकता है। शुद्ध साधन की भी अपनी सीमाएं होती हैं। साधु की भूमिका अलग होती है, गृहस्थ की अलग। साधु तो सर्व हिंसा का त्याग करते हैं। निर्दोष को पीड़ित करना अशुद्ध साधन माना जाता है। अतः भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में साध्य और साधन की शुद्धता की भिन्न व्याख्याएं हो सकती हैं। उसी प्रकार भय और अभय के भाव भी संदर्भानुसार समझे जा सकते हैं। गलती होने पर उलाहना देना भी उचित होता है, पर स्वयं संयम के प्रति भी सजग रहना चाहिए। चतुर्दशी के अवसर पर पूज्यवर ने हाजरी वाचन कराते हुए मर्यादाओं को समझाया और प्रेरणाएं प्रदान कीं कि पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों की अखंड आराधना होती रहे। संसार में संन्यास से बढ़कर और क्या हो सकता है? जीवन के अंतिम श्वास तक साधुत्व सुरक्षित रहे। उपस्थित चारित्रात्माओं ने अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र का उच्चारण किया। पूज्य प्रवर ने आगे फ़रमाया - हमारे यहां संयम पर्याय का महत्व है और उसी के अनुरूप सम्मान दिया जाना चाहिए। आज ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी है, मुख्य मुनि का मनोनयन दिवस है। दो दिन पूर्व साध्वीवर्या की नियुक्ति दिवस था।
जीवन का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है— संयम जीवन का मिलना और उसमें सेवा का अवसर प्राप्त होता होना। उस सेवा के मौके का सुंदर तरीके से लाभ उठाने का प्रयास चलता रहे। साध्वी वर्या भी अपने ढंग से काम करती रहें, खुद का स्वाध्याय भी चलता रहे। मुख्य मुनि का बाहुश्रुत्य भी निखरता रहे। वे अपने विकास के साथ निर्भीक जीवन जिएँ, और संगठन व्यवस्था से जुड़े रहकर अपेक्षानुसार सेवा करते रहें। आचार्यश्री ने मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी के मनोनयन दिवस के संदर्भ में उन्हें मंगल आशीष प्रदान किया।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जो महापुरुष होते हैं, उनके कंठ में अमृत का वास होता है। उनकी वाणी आदरणीय होती है। लोग उनके वचनों को सुनना और अपनाना चाहते हैं। यदि हमें अमृत प्राप्त करना है तो गुरु उपासना करनी चाहिए। उपासना से आत्मबोध प्राप्त होता है, भीतरी प्रवृत्तियों का परिष्कार होता है और शांति-सामाधि प्राप्त होती है। इससे चित्त की विशुद्धता विकसित होती है। पूज्यवर के स्वागत में स्थानीय सभाध्यक्ष महावीर चावत, विकेश दक, ब्रह्मकुमारी शोभनाबेन, माहेश्वरी समाज की ओर से शिव मूंदड़ा, दिनेश भाई डाभी, मुकेशभाई त्रिवेदी,विद्यालय के प्रमुख रोहितभाई त्रिवेदी ने अपनी भावनाएं अभिव्यक्त कीं। भिलोड़ा के सरपंच प्रमोद राय व सिद्धि जैन ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। वंदना भटेवरा ने गीत को प्रस्तुति दी। तेरापंथ महिला मंडल एवं महेश्वरी महिला मंडल ने गीतों के माध्यम से पूज्यवर का भावभरा अभिवंदन किया। ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने सुंदर प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।