अप्रमत्त साधना करने वाली साध्वी

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साध्वी पुण्ययशा

अप्रमत्त साधना करने वाली साध्वी

मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह ऐसा जीवन जीए जिससे जीवन का एक-एक पल विकास की ऐसी उपलब्धि बने जो जीवन को चरम लक्ष्य — मोक्ष — तक पहुंचा दे। इस विशुद्ध और पवित्र लक्ष्य का एक बड़ा सेतु है प्रव्रज्या (संयम)। संयम जीवन की एक अमूल्य निधि है। चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम, गुरु-कृपा और प्रबल भाग्योदय से ही संयम की प्राप्ति संभव हो सकती है।
साध्वी संचितयशा जी ने उत्कृष्ट वैराग्य से गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के कर-कमलों से संयम रत्न को अंगीकार किया। हमने उनको सेवाभावी, विनम्र, जागरूक, स्वाध्यायशील और अप्रमत्त साधना करने वाली साध्वी के रूप में देखा। अपनी उदारता, मिलनसारिता, सहनशीलता, कार्यकुशलता और श्रमनिष्ठा से उन्होंने संघ में अपनी पहचान बनाई। वर्षों तक शासनश्री साध्वी सोमलता जी की सहवर्ती साध्वी के रूप में रहकर उन्होंने अपने जीवन को सद्संस्कार व सद्संकल्पों से सजाया। शासनश्री साध्वी सोमलता जी की असाध्य बीमारी में — साध्वी शकुंतलाश्री जी, साध्वी संचितयशा जी, साध्वी जागृतयशा जी, साध्वी रक्षितयशा जी — पूरे ग्रुप ने बहुत मनोयोग से उनकी सेवा की। उन्होंने उन्हें चित्त समाधि तक पहुंचाया। उन क्षणों की मैं भी साक्षी हूं। उस समय तीन दिन दादर में साथ रहने का भी अवसर मिला। वर्तमान में साध्वी शकुंतलाश्री जी की सहवर्ती साध्वी के रूप में, साध्वी संचितयशा जी ने अनशनपूर्वक समाधि-मरण का वरण किया। अभी साध्वी संचितयशा जी के जाने का समय नहीं था, पर इस क्षण को कोई नहीं टाल सकता। साध्वी शकुंतलाश्री जी आदि सभी साध्वियों ने उनकी बहुत सेवा की। वे उनकी चित्त समाधि में सहयोगी बनी हैं। अंतिम समय में साहस के साथ उन्हें अनशन करवाकर साधु के तीसरे मनोरथ को पूर्ण किया है। दिवंगत आत्मा के आध्यात्मिक विकास की मंगलकामना।