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अग्रगामी के पथ की पथिक बन गईं
मुंबई के अर्जुनलाल गन्ना से ज्ञात हुआ कि साध्वी संचितयशा जी का संथारे में स्वर्गवास हो गया। सुनते ही हम शॉक हो गए। छोटी अवस्था में, प्रबुद्ध व समझदार साध्वी इस प्रकार संसार से विदा हो गईं। भगवान महावीर ने आप्तवाणी में फरमाया — 'इयं शरीरं अणिच्चं'। यह शरीर अनित्य है। काल कब ग्रसित कर ले, कहा नहीं जा सकता। पिछले कई वर्षों से साध्वी संचितयशा जी को चिकित्सा की शरण लेनी पड़ी। फिर भी 'शासनश्री' साध्वी सोमलता जी की पूरी तन्मयता के साथ सेवा की। उन्हें समाधि पहुंचाई — इसका हमें गौरव है। लगभग 10 माह के अंतराल में साध्वी संचितयशा जी अपने अग्रगामी का अनुसरण कर उनके पथ की पथिक बन गईं। हमने श्रीडूंगरगढ़, जोधपुर पावस में देखा — मोती जैसे अक्षर थे साध्वी संचितयशा जी के। जो भी काम हाथ में लेतीं, पूरी निष्ठा व लगन से संपादित करतीं। पढ़ी-लिखी होने के बावजूद भय का कुहासा छाया ही रहता। मुंबई के विमल सोनी से ज्ञात हुआ कि अंतिम समय में अनंत-अनंत वेदना को समभाव से सहन कर, संचितयशा जी ने अपने जीवन को सफल बनाया है। हम मंगल कामना करते हैं कि उनकी आत्मा आध्यात्मिक यात्रा में उत्तरोत्तर विकास करती हुई सिद्ध गति को प्राप्त करे। साध्वी शकुंतला जी ने एक वर्ष में अपने अग्रगामी व सहयोगी दो-दो साध्वियों को खोया है। मन में उद्विग्नता आना सहज है, पर धैर्य व साहस से काम लेना है। साध्वी जागृतप्रभा जी व रक्षितयशा जी को निर्जरा का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ।