धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र का एक श्लोक है जो विशुद्ध वीतरागता का दर्शन कराता है-
भव बीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।।
जन्म-श्रृंखला के कारणभूत राग आदि जिसके क्षीण हो गए हैं उस आत्मा को नमस्कार है फिर नाम से वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो, जिन हो-कोई भी हो।
अध्यात्म-साधना का लक्ष्य है वीतरागता। वीतरागता की साधना में बाधाएं भी उत्पन्न होती रहती हैं। उनका उत्पादक है मोहकर्म। जब-जब मोह का उदय प्रबल होता है, वीतरागता के विकास में अवरोध ही नहीं, गतिरोध ही नहीं, प्रतिगति और हृासोन्मुखता भी हो जाती है। ज्यों-ज्यों मोह का विलय (क्षयोपशम, उपशम, क्षय) प्रबल होता है, व्यक्ति वीतरागता की दिशा में आगे बढ़ता जाता है। मोह विलय के उपायों को जानना अपेक्षित है, आलम्बन अपेक्षित है।
भगवान महावीर समता-पुरुष थे, उनकी समता की पराकाष्ठा इस श्लोक से ज्ञात होती है-
पन्नगे च सुरेन्द्रे च, कौशिके पादसंस्पृशि।
निर्विशेषमनस्काय श्री वीरस्वामिने नमः।।
भगवान महावीर को नमस्कार। वे महावीर जो समचित्त थे। चण्डकौशिक सर्प ने प्रभु के चरण का स्पर्श किया, पैर को दंशा और देवेन्द्र ने भी प्रभु के चरणों में नमस्कार किया। एक भयंकर प्रतिकूलता की स्थिति और एक इति सुखद अनुकूलता की स्थिति। ऐसी प्रतिकूलता-अनुकूलता की स्थितियों को जिन्होंने समभाव से सहन किया, उन भगवान महावीर को नमस्कार।
तन्मयता से भगवान महावीर जैसे महापुरुषों का पुनः पुनः स्मरण भी वीतरागता की दिशा में आगे बढ़ने में सहायक बनता है।
राजा ने संन्यासी से शांति का मार्ग बताने के लिए कहा। सन्त ने कहा-शांति का मार्ग है समता-सुख-दुःख में सन्तुलित मानसिकता। भगवन्! इसको साधने के लिए कोई आलम्बन-सूत्र भी दो। संन्यासी ने कहा- 'यह समय भी बीत जाएगा' इस कथ्य को याद रखो। अनुकूलता की स्थिति में इसका स्मरण करो और प्रतिकूलता की स्थिति में भी इसका स्मरण करो, प्रियता और अप्रियता के भावों से बचने का प्रयास करो।
मुक्त आत्मा पूर्णतया विशुद्ध है। संसारी आत्मा पूर्ण विशुद्ध नहीं होती। ज्यों-ज्यों आध्यात्मिक विकास होता है, जीव पूर्ण विशुद्धि की दिशा में गतिमान् होता है। पूर्ण विशुद्धि (सिद्धावस्था) की प्राप्ति के पूर्व केवलज्ञान की उपलब्धि आवश्यक है। सब केवलज्ञानी तीर्थकर नहीं होते। उनमें से कुछ जीव ही तीर्थंकरत्व को प्राप्त होते हैं। भगवान महावीर के समय यहां केवली मुनि सैकड़ों थे, परन्तु तीर्थंकर एकमात्र भगवान महावीर थे। तीर्थंकरत्व प्रकृष्ट पुण्य प्रकृति के उदय से प्राप्त होता है। श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ में नौ जीवों ने तीर्थंकर नाम गौत्र कर्म अर्जित किया था। ठाणं में उसका वर्णन प्राप्त है।
वीतरागता की साधना कषाय-विजय की साधना है। एक शब्द में कषाय, दो शब्दों में राग और द्वेष, चार शब्दों में क्रोध, मान, माया और लोभ को जीतना मोहविजय और वीतरागता है। वीत का अर्थ है- चला गया-खत्म हो गया। राग का अर्थ है- आसक्तिपरक परिणाम। साधना के क्रमिक विकास में सबसे अन्त में राग खत्म होता है, क्रोध आदि तो पहले ही उपशांत अथवा क्षीण हो जाते हैं। इसलिए जिसके राग नहीं रहता, उसके अन्य कषाय भी नहीं रहता, वह पूर्ण वीतराग बन जाता है।
दो शिष्य गुरु के पास पहुंचे। साधना के लिए मार्गदर्शन की प्रार्थना की। गुरु ने सूत्रशैली में कहा- 'मा रुष, मा तुष' प्रतिकूलता की स्थिति में रोष मत करो और अनुकूलता की स्थिति में हर्ष मत करो। दोनों स्थितियों में सम रहो। यही जीवन की साधना है। पाप कर्म के बन्ध का अनन्य कारण है राग और द्वेष। जिस प्रवृत्ति के साथ राग-द्वेष जुड़ जाता है, वह बन्धन का हेतु बन जाती है, अशुभ योग की संज्ञा को प्राप्त हो जाती है। जो प्रवृत्ति राग-द्वेष मुक्त रहती है वह निर्जरा का हेतु बन जाती है, शुभ योग की संज्ञा को प्राप्त हो जाती है। वह वीतराग का मार्ग है।