
स्वाध्याय
श्रमण महावीर
भगवान् ने साधकों को तीन श्रेणियों में विभक्त कर दिया-
१. प्रत्येक बुद्ध-प्रारम्भ से ही संघ-मुक्त साधना करने वाले।
२. स्थविरकल्पी-संघबद्ध साधना करने वाले।
३. जिनकल्पी-संघ से मुक्त होकर साधना करने वाले।
यह श्रेणी-विभाग भगवान् पार्श्व के समय में भी उपलब्ध होता है। संघ साधना का स्थायी केन्द्र था। अकेले रहकर साधना करने वाले साधकों को उस (साधना) की अनुमति मिल जाती। वे साधना पूर्ण कर फिर संघ में आना चाहते तो आ सकते थे। भगवान् महावीर की दृष्टि संघ से बंधी हुई नहीं थी। उसका अनुबंध साधना के साथ था। साधक का लक्ष्य साधना को विकसित करना है, फिर वह संघ में रहकर करे या अकेले में। साधना शून्य होकर अकेले में रहना भी अच्छा नहीं है और संघ में रहना भी अच्छा नहीं है। संघ को प्रधान मानने वाले व्यक्ति अपने द्वार को खुला नहीं रख सकते। जो अपने संघ के भीतर आ गया, उसके लिए बाहर जाने का द्वार बन्द रहता है और जो बाहर चला गया, उसके लिए भीतर आने का द्वार बन्द रहता है। भगवान् महावीर ने आने और जाने के दोनों द्वार खुले रखे। साधना के लिए कोई भीतर आए तो आने का द्वार खुला है और साधना के लिए कोई बाहर जाए तो जाने का द्वार खुला है।
संघबद्ध और संघमुक्त साधकों की मर्यादाएं भिन्न-भिन्न थीं। संघबद्ध साधक परस्पर सहयोग करते थे। संघमुक्त साधक निरालम्व जीवन जीते थे। जीवन-व्यवहार में अनुशासन और एकरूपता-ये संघ की विशेषताएं हैं।
भगवान् महावीर सिंधु-सौवीर की ओर जा रहे थे। गर्मी का मौसम था। मार्ग में गांव कम, जल कम और आवागमन बहुत कम। चारों ओर बालू के टीले ही टीले भूखे-प्यासे साधु भगवान् के साथ चल रहे थे। उस समय कुछ बैलगाड़ियां मिलीं उनमें तिल लदे हुए थे। उनके मालिकों ने साधु-संघ को देखा और देखा कि साधु भूख से आकुल हो रहे हैं। वे बोले- 'महाराज! आप तिल खाकर भूख को शांत करें।' तिल निर्जीव थे। फिर भी भगवान् ने तिल खाने की अनुमति नहीं दी। तिल लेने की परम्परा का सूत्रपात एक बार हो गया तो सदा के लिए हो गया। फिर तिल लेने का संस्कार बन जाएगा, सजीव या निर्जीव की बात पीछे रह जाएगी। हर साधु कैसे जान पाएगा कि तिल सजीव हैं या निर्जीव?
भगवान् का काफिला कुछ आगे बढ़ा। मार्ग से थोड़ी दूर पर एक जलाशय दिखाई दिया। प्यास से आकुल साधु बोल उठे- 'वह पानी दिख रहा है।' भगवान् ने अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से देखा जलाशय का जल निर्जीव है। इसे पीने में कोई हिंसा नहीं होगी पर इसे पीना उचित कैसे होगा? एक बार जलाशय का जल पी लिया, फिर दूसरी बार वह वर्जित कैसे होगा? हर साधु कैसे जान पाएगा कि जल सजीव है या निर्जीव? भगवान् ने जलाशय का जल पीने की अनुमति नहीं दी।
उस मार्ग में भगवान् के अनेक साधु दिवंगत हो गए पर उन्होंने संघीय व्यवस्था का अतिक्रमण नहीं किया।
संघीय जीवन में अनुसरण की बात पर बहुत ध्यान देना होता है। एकाकी जीवन में धर्म की चिन्ता होती है, अनुसरण की चिन्ता नहीं होती। भगवान् महावीर के संघ से मुक्त होकर एकाकी साधना करने वाले सैकड़ों-सैकड़ों मुनि थे।
भगवान् ने संघ को बहुत श्रेष्ठता प्रदान की, इसीलिए अधिकांश साधकों ने संघ में रहना पंसद किया। उस समय कुछ धर्मावलम्बी संघ का विरोध भी करते थे।