मित बोलने वाला होता है सज्जनों में प्रशंसनीय : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

शिनावाड। 31 मई, 2025

मित बोलने वाला होता है सज्जनों में प्रशंसनीय : आचार्यश्री महाश्रमण

मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ लगभग 11 किमी का विहार कर शिनावाड के प्राथमिक विद्यालय में पधारे। पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए परम पूज्य ने फरमाया कि हमारे जीवन में वाणी और भाषा एक महत्वपूर्ण तत्व है। आदमी बोलता है और बोलकर अपने विचार दूसरों तक पहुंचा सकता है। बोली हुई बातों को सुनकर दूसरों के विचार भी ग्रहण किए जा सकते हैं। आदमी की भाषा विकसित है। कितनी भाषाएं हैं। एक भाषा में कितने-कितने शब्द होते हैं और कितने-कितने ग्रंथ उपलब्ध हैं। शास्त्रों में बोलने के बारे में निर्देश दिया गया है कि मित (संयमित) बोलो। अपरिमित बोलना असुहावना और अहितकर हो सकता है। मौन करना भी साधना का एक अंग है। बोलने में भी हमें विवेक रखना चाहिए। जो मित बोलता है, वह विद्वानों और सज्जनों में प्रशंसनीय होता है। मौन रहना आसान नहीं है।
पूज्यप्रवर ने एक प्रसंग के माध्यम से समझाया कि ध्यान करने से पहले मौन रखना सीखें। न बोलना भी एक साधना है। जितना अपेक्षित हो, उतना ही बोलें; अनपेक्षित न बोलें। यह संयम, धर्म और व्यवहार की दृष्टि से अच्छा हो सकता है। बोलो तो मीठा बोलो–'कागा काहे को लेत है, कोयल काहे को देत। एक वचन के कारणे, जग अपना कर लेत।' खुद को बदलो, जग बदलेगा। आप भले होंगे तो जग भी भला होगा। बड़ों के साथ विनयपूर्वक व्यवहार हो, तो अच्छा प्रभाव पड़ सकता है। सोच-विचार कर बोलें – 'भाषा तोलणी ए, पछे बोलणी ए।' बुद्धि से समीक्षा कर बोलें। कहां क्या बोलना है, इसका विवेक हो।
अच्छाइयों को आम लोगों को बताया जा सकता है, पर बुराइयों को व्यक्तिगत रूप से बताएं। पूज्यप्रवर ने आगे फरमाया– ''आज हमारे मुख्य मुनि महावीरकुमारजी का 38वां जन्मदिन है। आज ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, श्रुत पंचमी का दिन भी है – ज्ञान का विकास हो और जो श्रुत है, वह बहुश्रुत हो जाए। इन्हें श्रेष्ठ श्रुताराधक की डिग्री भी मिली हुई है।'' बहुश्रुत परिषद के संयोजक भी हैं। पात्रता हो तो कुछ भी ग्रहण किया जा सकता है। साधना के साथ-साथ स्वास्थ्य का भी पूरा ध्यान रखें। खूब सेवा और परिश्रमशीलता का क्रम बना रहे।' पूज्यवर के स्वागत में विद्यालय की ओर से प्रिंसिपल कनुभाई परमार ने अपनी भावनाएं व्यक्त कीं। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।