जीव की मोक्ष यात्रा

गुरुवाणी/ केन्द्र

19 मई 2025

जीव की मोक्ष यात्रा

आर्हत् वाङ्मय में कहा गया है – मैं कौन हूं? यह एक प्रश्न है। यह प्रश्न कोई भी आदमी स्वयं के लिए उठा सकता है कि मैं कौन हूं? यह जो मेरा शरीर दिखाई दे रहा है, वही मैं हूं या और कोई चीज में मैं हूं। इस प्रश्न का उत्तर अध्यात्म के प्रवक्ता के द्वारा दिया जा सकता है।
एक साधु के पास कोई लड़का आया और बोला – मुनिवर! मन में प्रश्न है कि मैं कौन हूं?
संत ने कहा – इसका उत्तर है कि मैं आत्मा हूं, यानी तुम आत्मा हो, जीव हो, चैतन्यवान हो।
लड़के ने पूछा – ये हाथ-पांव, सारा शरीर, केश आदि क्या यही जीव है?
संत ने कहा – यह जो दिखाई दे रहा है वह तो अजीव है, पुद्गल पिंड है। यह तुम मूलतः नहीं हो। तुम आत्मा हो, जीव हो। यह जो शरीर है, यह मूलतः अजीव है। अभी जीव और अजीव मिले हुए हैं, पर यह शरीर अपने आप में पुद्गल है, अजीव है और तुम जीव हो, आत्मा हो।
लड़के ने फिर प्रश्न किया – मैं जीव और यह शरीर अजीव है, फिर मेरा और इस पुद्गल पिंड का मिलन या मिश्रण कैसे हुआ? यह मेरे साथ-साथ क्यों चल रहा है? मैं तो यह शरीर हूं नहीं, मैं तो आत्मा हूं। फिर मैं जीव, यह अजीव, हम दोनों का साथ कैसे हो गया?
तब संत ने कहा – यह पुण्य-पाप का योग है कि शरीर का भी तुम्हें सहयोग मिल गया।
प्रश्न हुआ – ये पुण्य-पाप क्यों आ रहे हैं?
संत ने कहा – बंध नाम का एक तत्व है। तुम्हारे कर्म बंधे हुए हैं। वे पुण्य या पाप के रूप में उदय में आ रहे हैं।
लड़के ने कहा – आपने जीव बता दिया, अजीव बता दिया, पुण्य-पाप बता दिए, बंध बता दिया, तो मेरी जिज्ञासा और आगे बढ़ गई है कि यह कर्मों का बंध होता क्यों है? कर्मों का बंध कराने वाला कौन है?
संत ने कहा – एक आश्रव नाम का तत्व है। जीव के द्वारा शुद्ध-अशुद्ध परिणाम रूप प्रवृत्ति की जाती है, वह आश्रव है। उससे यह कर्मों का आकर्षण होता है, बंध होता है।
लड़के ने कहा – महाराज! आपने आश्रव की बात बताई। मैंने समझने की चेष्टा भी की है, तो मुझे यह लगा कि सारे दुखों का, पापों का, पुण्य का मूल तो आश्रव है और शरीर का यह सहयोग भी आश्रव के कारण है। यह आश्रव तो एक समस्या है। इससे कर्मों का बंधन होता है, फिर ये कर्म भोगने पड़ते हैं। मुनिवर! आपने समस्या तो बता दी, अब इसका कोई समाधान भी है या नहीं? इन कर्मों के आगमन का जो यह कारण आश्रव है, इसको रोकने का या खत्म करने का कोई उपाय भी है क्या?
संत ने कहा – समस्या मैंने बताई है तो समाधान भी मैं बता सकता हूं। वह है संवर। संवर की साधना करो। सामायिक करना भी संवर है, और भी त्याग, प्रत्याख्यान करना, मिथ्या दृष्टिकोण का परित्याग करना, छोड़ देना – यों अनेक रूपों में संवर हो सकता है। संवर के मुख्यतः पाँच भेद हैं – सम्यक्त्व संवर, विरक्ति संवर, अप्रमाद संवर, अकषाय संवर, अयोग संवर।
संवर हो जाएगा तो आश्रव नहीं रहेगा। ''संवरो मोक्ष कारणं'' – अर्थात् संवर मोक्ष का कारण है। संवर, आश्रव की समस्या का समाधान है।
लड़का भी बड़ा बुद्धिमत्ता से बात कर रहा था – महाराज! मेरे मन में एक और प्रश्न पैदा हो गया। आपने जैसा कहा कि संवर हो जाएगा तो आश्रव नहीं रहेगा, कर्म नहीं बंधेंगे। ठीक है, मैं संवर कर लूंगा, तो नए सिरे से कर्म नहीं बंधेंगे, पर पहले से जो कर्म बंधे हुए हैं, उनको निकाले बिना वे अपना काम करते रहेंगे। वे रहेंगे, तब तक फिर यह शरीर चलता रहेगा। इसलिए पहले से जो अर्जित कर्म हैं, बंध हैं, उनको निकालने का कोई उपाय है क्या?
संत ने कहा – निर्जरा नाम का एक तत्व है, जिससे पुराने बंधे हुए कर्मों को तपस्या के द्वारा तोड़ा जा सकता है। नए सिरे से आने का क्रम बंध हो गया संवर से, और पुराने कर्मों को आंशिक रूप से निकालने का काम है – निर्जरा का।
लड़के को काफी संतोष मिला कि नए सिरे से कर्म न आए वह उपाय भी मुनिजी ने बता दिया, और पुराने कर्मों को निकालने का उपाय भी बता दिया।
लड़का बोला – महाराज! निर्जरा मैं कर लूंगा, संवर भी करूंगा, फिर तो सारी समस्या का समाधान हो जाएगा न?
संत बोले – फिर तो मोक्ष मिल जाएगा। फिर शरीर रहेगा ही नहीं, केवल तुम – यानी आत्मा – रहोगे। मोक्षावस्था में सर्वकर्मविप्रमुक्त अवस्था जीव की हो जाएगी। फिर नए सिरे से न कर्म है, न जन्म है, न मरण है, न मन है, न वाणी है। एकदम निरंजन, निराकार, अयोग अवस्था रूप में आत्मा रहेगी।
लड़का बोला – आपने थोड़े में मुझे बहुत ज्ञान दे दिया, मोक्ष तक की बात बता दी। महाराज! आपने जो यह दर्शन बताया है, इसके मूल प्रवक्ता कौन हैं?
मुनिजी बोले – अधिकृत प्रवक्ता तो तीर्थंकर होते हैं। वे इस सारे दर्शन के, अध्यात्म के सर्वोच्च प्रवक्ता, अधिकृत प्रवक्ता होते हैं। उनसे बड़ा कोई प्रवक्ता नहीं होता।
लड़का बोला – क्या आप मुझे उनके दर्शन करा दोगे?
मुनिजी बोले – वे अभी इस एरिया (भरत क्षेत्र) में नहीं हैं। यहां से बहुत दूर महाविदेह क्षेत्र में हैं, वहां जाना अभी मुश्किल है। इसलिए अभी दर्शन की बात मुझे आसान नहीं लग रही है।
लड़का बोला – उनका प्रतिनिधित्व करने वाला, उनकी बात बताने वाला कोई एरिया में है?
संत बोले – हां, हमारे आचार्य हैं। वे तीर्थंकर के प्रतिनिधि होते हैं। मुनिजी उनको आचार्य जी के पास लेकर आए।
लड़का बोला – गुरुजी! तत्व क्या है, धर्म क्या है?
गुरु ने कहा – जिन प्रज्ञप्त तत्व जो है, उसे धर्म कह दो, तत्व कह दो, सिद्धांत कह दो – एक ही बात है।
लड़का बोला – महाराज! आज का दिन मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है कि आप जैसे मुनिश्री का संपर्क मुझे मिला। आपने मुझे बहुत सारभूत बातें बता दी। ये बातें मैं आपसे स्वीकार करना चाहता हूं।
मुनिजी बोले – देव, गुरु, धर्म को स्वीकार कर लो। नव तत्वों पर श्रद्धा रखो, यह सम्यक्त्व है।
लड़के ने नव तत्वों को आत्मसात किया और देव, गुरु, धर्म को समझकर धर्म को स्वीकार कर लिया। उन पर श्रद्धा रखने का निर्णय कर लिया।
संत बोले – भाई! सम्यक्त्व का बड़ा महत्व है –
''सम्यक्त्वरत्नान् न परं हि रत्नं।
सम्यक्त्वमित्रान् न परं हि मित्रम्।
सम्यक्त्वबन्धो न परो हि बन्धुः।
सम्यक्त्वलाभान् न परो हि लाभः।।''
सम्यक्त्व से बड़ा कोई रत्न नहीं, सम्यक्त्व से बड़ा कोई मित्र नहीं, सम्यक्त्वरूपी बंधु से बड़ा कोई भाई नहीं और सम्यक्त्व से बड़ा कोई लाभ नहीं।
यह सम्यक्त्व बहुत महत्वपूर्ण चीज है – 'तमेव सच्चं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं" – वही सत्य है, वही निशंक है, जो जिनों के द्वारा, तीर्थंकरों के द्वारा, केवलियों के द्वारा, ज्ञानियों के द्वारा प्रवेदित है। यह एक आस्था का सूत्र है कि – तमेव सच्चं णीसंकं – यह श्रद्धा की भाषा है कि वही सत्य है, वही निशंक है।
अनंत काल की यात्रा में जीव को सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होना एक अच्छी उपलब्धि होती है। सम्यक्त्व के बिना आचार-क्रिया का पालन करने पर भी विशेष लाभ नहीं होता।
जयाचार्य प्रवर ने कहा है –
जे समकित बिण म्हैं, चारित्र नीं
किरिया रे।
बार अनंत करी, पिण काज न सरिया रे।।
हिवं समकित चारित, दोनूं गुण पायो रे,
वेदन समपणै, सह्यां लाभ सवायो रे।।
जयाचार्य प्रवर द्वारा रचित आराधना ग्रंथ बहुत अच्छा, मननीय ग्रंथ है। इसमें कहा गया है कि सम्यक्त्व के बिना आचार-क्रिया का अनंत बार पालन किया होगा, किंतु कार्य सिद्ध नहीं हुआ, यानी मोक्ष नहीं मिला। अब सम्यक्त्व और चारित्र दोनों प्राप्त हैं, इसलिए जितना सहन करें, साधना करें, सवाया लाभ मिल सकेगा।
अंक के बिना शून्य बेकार है, अंक एक है और उसके आगे शून्य लगाओ तो 10 हो जाएंगे, फिर शून्य लगाओ तो 100 हो जाएंगे, फिर शून्य लगाओ तो 1000 हो जाएंगे – यों मूल्य बढ़ता जाएगा, महत्व बढ़ता जाएगा। अगर अंक हटा दो, फिर केवल शून्य हैं, तो उनका क्या मूल्य है? अंक साथ में हो तो शून्यों का भी मूल्य है।
इस प्रकार सम्यक्त्व है तो आचार-क्रिया का बहुत महत्व है। सम्यक्त्व विहिन आचार है तो उसका ज्यादा महत्व नहीं है, थोड़ा महत्व मान लें। हालांकि पुण्य का बंध तो हो सकता है। अभव्य जीव भी नवग्रैवेयक तक चला जाए, परंतु मोक्ष में कभी नहीं जाता है। यह सबसे बड़ी बात है कि सम्यक्त्व के बिना अभव्य जीव के पुण्य का ठाठ तो बंध सकता है, किंतु मोक्ष का ठाठ उसे नहीं मिलता है। सम्यक्त्व आ गया, फिर तो निश्चित कालावधि में मोक्ष का मिलना सुनिश्चित है। यह सम्यक्त्व की महिमा है, गरिमा है।
आदमी का दृष्टिकोण सम्यक रहे। दृष्टिकोण तथ्यपरक रहे, कहीं फालतू दुराग्रह नहीं हो। सदैव सत्याग्रह रहे –
पक्षपातो न मे वीरं, न द्वेषः कपिलादिषु।
युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः।।
मेरा भगवान महावीर से क्या पक्षपात है? भगवान महावीर मेरे क्या लगते हैं? वे मेरे काका या दादा तो हैं नहीं। अन्य दर्शनों के कपिल आदि जो भी प्रणेता हैं, उनसे मेरा कोई द्वेष नहीं है। जिसका वचन युक्तियुक्त है, उसका परिग्रहण कर लेना चाहिए – यह मेरा आस्था का सूत्र है। यह निष्ठा यथार्थ की निष्ठा है। हमारा सम्यक्त्व पुष्ट रहे और चारित्र का योग रहेगा तो मोक्ष तो मिलने ही वाला है। हम सम्यक्त्व और चारित्र की सम्यक आराधना करते रहें – यह काम्य है।