
रचनाएं
प्राप्त करो निर्वाण
यथा नाम गुण भी तथा, जन-जन रहा निहार।
कीर्तियशाजी ने किया, सचमुच दुक्कर कार।।
संथारा स्वीकार कर, किया है अनुपम काम।
आत्मा के उत्थान सह, किया संघ में नाम।।
आदि अंत में मिल गया, जन्म भूमि का योग।
देख आपकी साधना, प्रमुदित हैं सब लोग।।
तुलसी युग दीक्षा ग्रही, रूं रूं नव उत्साह।
महाश्रमण युग में चली, पा सबसे वाह-वाह।।
मल्लिकाजी का मिला, सुगुरू कृपा से साथ।
विशद लब्धि आदिक ने, खूब बटाया हाथ।।
परिकर को भी मिल गया, सेवा का आनंद।
फैली सेवा केन्द्र की, चहुं दिशि सुयश सुगंध।।
स्मृति सभा में कर रहे, हदय खोल गुणगान।
क्रमशः करके साधना, प्राप्त करो निर्वाण। ।।