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अध्यात्म जगत की जागरूक साधिका – साध्वी कीर्तियशाजी
जीवन जीने की कला का मूल्य है, तो मरने की कला का इससे कई गुना अधिक मूल्य है। अतः कहा गया – 'मनखां मोटी बात मरणो जाणसी'। जैन दर्शन में इस कला को संथारा यानि समाधि मरण की संज्ञा दी गई है। अनशनपूर्वक देह त्याग मृत्युंजयी बनने की सुंदर प्रक्रिया है। इस समाधि मरण की साधना को आत्मसात् करने वाली कोई पुण्यात्मा ही हो सकती है।
ऐसी ही तेजस्वी, संयमी, पराक्रमी, आत्मार्थी, निर्जारार्थी, साहसी आत्मा थीं – साध्वी कीर्तियशाजी। जिन्होंने अपनी असह्य वेदना में भी बढ़ते-चढ़ते परिणामों को साधा। आचार्यप्रवर के निर्देशानुसार, उग्रविहारी तपोमूर्ति मुनिश्री कमलकुमारजी के मुखारविंद से तिविहार-अनशन पूर्ण जागरूकता के साथ स्वीकार कर, अद्वितीय शौर्य का परिचय दिया।
आप आचारनिष्ठ व संघनिष्ठ साध्वी थीं। आपकी हर कार्य में सुघड़ता, कार्यकुशलता, गंभीरता, सहिष्णुता आदि तत्वों ने आपको तेजस्वी बनाया। पंचाचार का पीयूष पीकर संयम-साधना को परिपुष्ट किया। आपने अपने दायित्व का निर्वहन बड़ी प्रखरता के साथ किया। विचारों, व्यवहारों और कार्यों में संतुलन बनाए रखना आपकी विशेषता थी। अपनी सकारात्मक सोच द्वारा आपने जीवन के हर कोण में सफलता का वरण किया।
आपने अपनी प्रबल इच्छाशक्ति एवं संकल्पशक्ति के साथ विलक्षण सहिष्णुता व समता की संपदा का अखंड खज़ाना हस्तगत कर लिया। शारीरिक असह्य वेदना में भी आपकी तप, जप, आगम स्वाध्याय व साधना के प्रति पूर्ण सजगता, स्वाध्याय में कायिक स्थिरता एवं सात्त्विक प्रसन्नता से आपको भवित देखा। आपने संयमरत्न की चमक को और अधिक शतगुणित कर जीवन के समरांगण में महायोद्धा बनकर, कर्म रिपुओं को परास्त कर, सिद्धपुर की ओर प्रस्थान कर दिया।
मैंने बारीकी से आपके जीवन को देखा। आप में आचार-विचार के प्रति इतनी अधिक जागरूकता थी कि किसी भी कार्य को करते समय कहतीं – 'कहीं मुझे पाप न लग जाए।' साधुत्व के प्रति बेजोड़ आस्था थी और आगम स्वाध्याय तो जैसे आपके रोम-रोम में बसा हुआ था। मैंने अनुभव किया कि आगम आपके अवचेतन मन तक उतरा हुआ था।
आर्षवाणी में कहा गया है – 'समया धम्म मुदाहरे मुणि'। भगवान महावीर ने समता को धर्म बताया है। मुझे ऐसा लगा कि आपने भगवान महावीर की इस वाणी को अपने जीवन का ध्येय बना लिया था। तभी इतनी भयंकर वेदना में भी आपका समताभाव अविचल रहा। मुझे लंबे समय तक आपके साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यदि यह भी कह दूं कि आप समता की प्रतिमूर्ति थीं, तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
हे सतीवरा! नमन है आपके धृतिबल को, नमन है आपके मनोबल को, और नमन है आपके आत्मबल को एवं साहसिक निर्णय को। आपने 'अप्पाण मेव जुज्झाइ', 'समयं गोयम मा पमायए' – भगवान महावीर की वाणी को आत्मसात कर, हर पल अप्रमत्तता का जीवन जिया। एक वीर
योद्धा की तरह आत्मविजय का कवच पहनकर अभ्युदय का मार्ग लिया। आपकी भावधारा की पवित्रता को देखकर सात्त्विक आह्लाद की अनुभूति हो रही है। गुरुदेव की असीम अनुकंपा ने आपको अंतिम मनोरथ पूर्ण करवा कर भवसागर से पार पहुँचाया है।
आपका मेरे जीवन में अनन्य उपकार है। मेरे जीवन में अनेक संघर्ष आए, किन्तु आपने मातृवत वात्सल्य देकर स्थिर रखा। कभी डोलायमान नहीं होने दिया और साधना के गुर बताती रही और मेरे मार्ग को प्रशस्त करती रहीं और सदैव मुझे अपने साथ बांधे रखा। समय-समय पर असीम वात्सल्य बरसाती रहीं और मुझे नया करने के लिए प्रेरित करती रहीं।
अपने निपुण साहचर्य से मेरी जिंदगी में समरसता घोलकर, व्यावहारिक शुभ गुणों व संस्कारों का सिंचन कर आपने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मेरे प्रत्येक कार्य में पूरक बनकर आपने हर पल मेरा सहयोग किया, जो मेरे जीवन के लिए अविस्मरणीय है।
मैं आपको एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं कर सकती। भले ही आप विलीन हो गई हैं, लेकिन भावों में, मेरे स्मृति-पटल पर आप सदैव अमर रहेंगी। आत्मनिष्ठा, गुरुनिष्ठा, संघनिष्ठा, आगमनिष्ठा – आपकी ये दुर्लभ विशेषताएं मुझमें भी संक्रमित होती रहें।
कहा गया है –
''जिंदगी एक राहगुज़र है, राही आते हैं, चले जाते हैं,
कोई विरले राही होते हैं, जो यादों में बस जाते हैं।''
अंत में, इस दिव्य आत्मा के प्रति यही आध्यात्मिक मंगल कामना करती हूं – आपकी आत्मा ऊर्ध्वगमन करती हुई, अतिशीघ्र मोक्षश्री का वरण करे।
अध्यात्म जगत की जागरूक साधिका व श्रुत आराधिका को नमन, नमन, नमन।