
स्वाध्याय
संबोधि
लोगों ने पूछा-किसलिए? कहा-तुम्हारे धर्म के मध्य में ये दो महान् व्यवधान हैं। नरक का भय और स्वर्ग का प्रलोभन, व्यक्ति इन दोनों से मुक्त हो कर ही शुद्ध, सत्य धर्म का स्पर्श कर सकता है। दान के पीछे जो मानसिक भाव-दशा होती है, उसी को आधार मानकर ये भेद किए गए हैं। कामना से मुक्त होने के बाद जो प्रवृत्ति होती है, वह वास्तविक प्रवृत्ति होती है। उसमें कोई आकांक्षा-प्रत्याशा नहीं रहती। दान के साथ व्यक्ति को सीखना है-फलाकांक्षा और प्रत्याशा से मुक्त होने का पाठ। सहज कर्त्तव्य बुद्धि से कार्य करना एक सही कला है। इस कला में जो निष्णात होता है, वह फिर दुःखी नहीं होता।
प्राप्ति का मोह बड़ा जटिल होता है। प्रलोभन देकर आदमी से कुछ भी कराया जा सकता है। धर्म के नाम पर या धर्म होगा-बस इतना सुनना चाहिए, मनुष्य का मन द्रवित हो जाता है। लोभ का एक प्रकार नहीं है। वह जैसे धन का होता है वैसे स्वर्ग का भी होता है। दान के सभी प्रकारों से अवबुद्ध होकर व्यक्ति अपनी बुद्धि को भ्रमित न करे और यह भी न भूले कि जीवन का ध्येय है-समस्त आशंसा से मुक्त होना। अपने को केवल एक निमित्त समझना है। फलाकांक्षा और प्रत्याशा की भावना से मुक्त होने पर स्वयं को यह अनुभव होगा कि जो कुछ कर रहा हूं-वह कैसा है? स्वभाव की उपलब्धि वस्तुतः सबसे बड़ा दान है, जिसमें पर का विसर्जन स्वतः निहित है। स्व के अतिरिक्त फिर पकड़ या प्राप्ति का कोई प्रश्न ही नहीं रहता।
६०. धर्मो दशविधः प्रोक्तो, मया मेघ ! विजानता।
तत्र श्रुतञ्च चारित्रं, मोक्षधर्मो व्यवस्थितः।।
मेघ! मैंने दस प्रकार का धर्म कहा है-
१. ग्राम– धर्म-गांव की व्यवस्था-आचार-परम्परा।
२. नगर– धर्म-नगर की व्यवस्था-आचार-परंपरा ।
३. राष्ट्र– धर्म-राष्ट्र की व्यवस्था आचार-परंपरा ।
४. पाषण्ड– धर्म-विविध संप्रदायों द्वारा सम्मत आचार-व्यवस्था।
५. कुल– धर्म-कुल का आचार।
६. गण– धर्म-गण-राज्य की आचार-मर्यादा।
७. संघ– धर्म-संघ- गण समूह की सामाचारी-आचार-मर्यादा।
८,९. श्रुत– धर्म और चारित्र-धर्म-आत्म उत्थान के हेतुभूत धर्म, मोक्ष के साधक धर्म।
१०. अस्तिकाय– धर्म-पंचास्तिकाय का स्वभाव।