बिना विनम्रता के ज्ञान बन जाता है अहंकार का पर्याय : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

साठंबा। 9 जून, 2025

बिना विनम्रता के ज्ञान बन जाता है अहंकार का पर्याय : आचार्यश्री महाश्रमण

जिनशासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 9 किमी का विहार कर साठंबा स्थित साठंबा ग्रुप विविध कार्यकारी सहकारी विद्यामंदिर के प्रांगण में पधारे। अमृतदेशना प्रदान करते हुए परम पावन गुरुदेव ने फरमाया कि हमारे जीवन में ज्ञान का अत्यंत महत्व है। ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्यार्थी कहां-कहां नहीं पहुंचते! देश छोड़कर विदेश जाकर भी पढ़ने वाले पढ़ते हैं। ज्ञान दो प्रकार का होता है—लौकिक ज्ञान और अध्यात्म विद्या का ज्ञान। अनेक विषयों व भाषाओं के ज्ञान को लौकिक विद्या के अंतर्गत रखा जा सकता है। दूसरा पक्ष है अध्यात्म विद्या, जिसमें आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, आत्मा की निर्मलता आदि विषयों का समावेश होता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्यार्थी विद्यालयों, महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में जाते हैं, जहां अध्ययन और अध्यापन की प्रक्रिया चलती है।
प्रश्न यह उठता है कि ज्ञान किसलिए अर्जित किया जाना चाहिए? एक उद्देश्य यह हो सकता है कि विद्या प्राप्त कर विद्यार्थी आगे चलकर आजीविका कमाने योग्य बन सके — Learning for Earning। दूसरा उद्देश्य यह हो सकता है कि श्रुत प्राप्त कर व्यक्ति ज्ञानी बने ताकि चित्त को एकाग्र कर सके, स्वयं सन्मार्ग में स्थित हो सके और दूसरों को भी उसी मार्ग में स्थापित कर सके। अध्ययन से आत्मनिर्भरता प्राप्त हो, यह भी एक लक्ष्य हो सकता है। संस्कारों से युक्त व्यक्ति बने — यह भी विद्या का महत्वपूर्ण उद्देश्य हो सकता है।
संस्कारयुक्त शिक्षा प्रणाली होनी चाहिए, जिसमें अहिंसा, नैतिकता, नशामुक्ति जैसे श्रेष्ठ संस्कार जीवन में उतरें। विद्यार्थी विनीत और निर्भीक बनें तथा जीवन में कुछ अच्छा कर सकें। शास्त्र में बताया गया है कि पांच ऐसे कारण हैं जिनसे शिक्षार्थी को ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता। उनमें सबसे प्रमुख है — अहंकार। ज्ञान और ज्ञानदाता के प्रति आदर का भाव होना चाहिए। ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी व्यक्ति को अहंकार नहीं करना चाहिए।  गुरु के प्रति विनय का भाव रहे। विनय और एकाग्रता से ही सही ज्ञान संभव है। ज्ञानदाता गुरु के उपकार को कभी नहीं भूलना चाहिए। क्रोध भी ज्ञान प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करता है। सभी के प्रति मैत्री भाव रखें। प्रमाद भी एक बाधा है। स्वाध्याय में प्रमाद न करें। रोग भी एक बाधा है। आलस्य भी ज्ञान प्राप्ति का शत्रु है। आलस्य मनुष्य जीवन में रहने वाला घातक तत्व है। श्रम करें और सफल बनें।
इन पांच बाधाओं — अहंकार, गुस्सा, प्रमाद, बीमारी, आलस्य — से विद्यार्थी स्वयं को दूर रखें। अच्छे संस्कारों से जीवन श्रेष्ठ बन सकता है। जीवन विज्ञान के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक विकास संभव है। IQ के साथ-साथ EQ का भी विकास हो — बुद्धि के साथ शुद्धि भी हो। हम संस्कार की दृष्टि से तीन मूल बातें बताते हैं — सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति। पूज्यवर ने इन प्रतिज्ञाओं को विद्यार्थियों और ग्रामवासियों को समझाकर स्वीकार करवाया और सभी में धार्मिक संस्कार बने रहें — यह भावना व्यक्त की। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने कहा कि विद्यार्थी का जीवन, निर्माण का जीवन होता है। यदि अच्छा वातावरण मिले तो व्यक्ति अपने जीवन का श्रेष्ठ निर्माण कर सकता है। अच्छी दिशा और दृष्टि प्राप्त होनी चाहिए। विद्यालय एक निमित्त बनता है — व्यक्तित्व निर्माण का। व्यक्तित्व निर्माण के तीन प्रमुख घटक हैं — संकल्पशीलता, बौद्धिक विकास और संवेग का नियंत्रण। इन्हीं से उत्तम व्यक्तित्व निखर कर सामने आता है।
पूज्यवर के स्वागत में विद्यालय की ओर से दिलीपसिंह राउल, स्थानीय तेरापंथी उपसभा के संयोजक गौतम बोल्या, मितेश बोल्या, स्कूल की संस्थापक ऊषादेवी, महक बोहरा ने अपनी भावना व्यक्त की। स्थानीय विधायक धवलसिंह झाला ने भी आचार्यश्री के स्वागत में अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी व पावन आशीर्वाद प्राप्त किया। स्थानीय तेरापंथ महिला मंडल, साठंबा समस्त जैन महिला मंडल ने स्वागत गीत का संगान किया। ज्ञानार्थियों की प्रस्तुति हुई। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।