ध्यान से हो सकती है स्थिरता एवं एकाग्रता की प्राप्ति : आचार्य श्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

वीरपुर। 7 जून, 2025

ध्यान से हो सकती है स्थिरता एवं एकाग्रता की प्राप्ति : आचार्य श्री महाश्रमण

युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 7 किमी का विहार कर वीरपुर पधारे। पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए पूज्यवर ने फरमाया कि दो शब्द हैं – स्वाध्याय और सध्यान। साधना में त्याग-संयम का महत्व तो है ही, साथ ही स्वाध्याय और ध्यान भी उसके महत्वपूर्ण अंग हैं। साधना में सेवा आदि कई तत्व हो सकते हैं। स्वाध्याय और ध्यान भी साधना के अंग हैं। स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि हो सकती है और ध्यान से स्थिरता एवं एकाग्रता की स्थिति प्राप्त हो सकती है। जहाँ प्रवृत्ति है, वहाँ ज्ञान (स्वाध्याय) है और जहाँ स्थिरता है, वह ध्यान हो जाता है। ज्ञान के लिए पुरुषार्थ की अपेक्षा है तो ध्यान के लिए अध्यवसाय की।
दुनिया में अनेक ध्यान पद्धतियाँ प्रचलित हैं। अब तो विश्व ध्यान दिवस भी मनाया जाने लगा है। ध्यान का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। ध्यान-योग ने व्यापकता प्राप्त कर ली है। तप के बारह भेदों में ग्यारहवां भेद ध्यान है। ध्यान में आर्त्त और रौद्र ध्यान अशुभ हो सकते हैं, जबकि धर्म और शुक्ल ध्यान शुभ माने जाते हैं। शुभ ध्यान अध्यात्म की साधना का अंग होता है। हमारे यहाँ प्रेक्षाध्यान चलता है। परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी के समय में इसका नामकरण हुआ था। वर्तमान में प्रेक्षाध्यान का पचासवां वर्ष – ‘प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष’ – चल रहा है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी मुनि अवस्था से ही इस पद्धति से जुड़े रहे हैं। उन्हें प्रेक्षाध्यान के प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में देखा जाता है। वे स्वयं ध्यान शिविरों का संचालन करते थे।
राग-द्वेष से मुक्त होकर स्थिरता में रहना ध्यान का एक प्रयोग हो जाता है। ध्यान के द्वारा शांति मिले, कर्मों की निर्जरा हो — यही ध्यान की श्रेष्ठता है। ध्यान एक उत्कृष्ट संवर की साधना है। ध्यान का आदर्श चतुर्दश गुणस्थानवर्ती आत्मा ही हो सकती है। चित्त को एकाग्र करना ही ध्यान है। ध्यान हमारे जीवन से व्यापक रूप में जुड़ा है। प्रवृत्ति अनावश्यक न हो, निवृत्ति की साधना हो। भाव-क्रिया हो जाए, दत्तचित्त हो जाओ। हर प्रवृत्ति में ध्यान हो। जो कार्य करो, उसमें मन को लगा दो — कार्य के साथ ध्यान को जोड़ दो। ध्यान कोई करे या न करे, यदि चित्त में पवित्रता है तो वह सहज योगी है। वे साधना में स्थिर रहते हैं। शरीर की स्थिरता, वाणी की अप्रवृत्ति और मन का विचार, स्मृति और कल्पना करना बंद हो जाए — यही ध्यान है। “योगो निरोधः ध्यानम्”। ध्यान हमारी पवित्रता से जुड़ा है। बगुला वृत्ति न हो — वह अशुभ ध्यान है। हमें शुभ ध्यान का प्रयोग करना चाहिए।
पूज्यवर ने ध्यान का स्वल्प अभ्यास करवाया और कहा प्रेक्षाध्यान में दीर्घ श्वास-प्रेक्षा, कायोत्सर्ग आदि अनेक प्रयोग हैं। देश-विदेश में कितने लोग प्रेक्षाध्यान पद्धति से जुड़े हैं। समय-समय पर नए-नए उन्मेष आते हैं, जिससे विकास संभव होता है। यदि कुछ श्रेष्ठ पाने के लिए कम श्रेष्ठ को त्यागना पड़े, तो व्यक्ति को त्याग कर देना चाहिए। रूढ़ियों में मत रहो — यह बात कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी के प्रसंग से समझाई गई। हमारे जीवन में विकास चिंतनपूर्वक हो। मौलिकता सुरक्षित रहे, जड़ें मजबूत बनी रहें। अनुशासन और विकास हमारे जीवन का हिस्सा बनें। धर्म की दृष्टि से जीवन की जड़ें सुदृढ़ बनी रहें।
पूज्यप्रवर ने आगे कहा कि आज वीरपुर आना हुआ। ‘वीर’ शब्द भगवान महावीर से जुड़ा है। हम तो प्रभु पंथ से जुड़े हैं। जैन-अजैन सभी अच्छा जीवन जिएँ। जीवन में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति बनी रहे। यदि चित्त और मन की एकाग्रता और पवित्रता बनी रहे तो आत्मा भी श्रेष्ठ बन सकती है। साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि हर व्यक्ति अच्छा जीवन जीना चाहता है, अच्छा इंसान बनना चाहता है। आचार्यवर भी प्रायः कहते हैं – “तुम जैन बनो या न बनो, पर गुड मैन बनो।” गुरुदेव तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से मनुष्य को सही इंसान बनने की राह दिखाई थी। अच्छा व्यक्ति बनने के लिए जीवन में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति के संकल्प आवश्यक हैं। इन्हीं कसौटियों से मनुष्य एक श्रेष्ठ इंसान बन सकता है।
आचार्यश्री के स्वागत में स्थानीय उपसभा के मंत्री खेमराज बोहरा, मनाली बोल्या, कोमल बोहरा, खेड़ा जिला के प्रमुख व पूर्व उपाध्यक्ष मुकेश शुक्ल व देसाई सी.एम. हाईस्कूल के प्रिंसिपल ऋषि भट्ट ने अपनी अभिव्यक्ति दी। बालक पंथ बोल्या ने अपनी प्रस्तुति दी। स्थानीय तेरापंथ महिला मण्डल ने गीत का संगान किया। ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपने आराध्य के समक्ष अपनी भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।