संयम और तप साधना से शरीर बन सकता है तारने वाली नौका : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अणियोर कंपा। 4 जून, 2025

संयम और तप साधना से शरीर बन सकता है तारने वाली नौका : आचार्यश्री महाश्रमण

भैक्षवगण सरताज आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 13 किमी का विहार कर अणियोर कंपा ग्राम में पधारे। पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए परम पावन ने फरमाया कि शास्त्र में कहा गया है कि जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, शरीर में व्याधि न बढ़े और जब तक इन्द्रियाँ क्षीण न हो जाएँ, तब तक धर्म का समाचरण कर लेना चाहिए। जब तक शरीर में सक्षमता हो, तब तक जो जितना अच्छा कार्य, धर्म का कार्य किया जा सके, वह व्यक्ति को कर लेना चाहिए। शरीर की सक्षमता में तीन बाधाएँ हैं – उनमें एक है बुढ़ापा। बुढ़ापे में चलना, सुनना कम हो जाता है। आँखों की दृष्टि और शरीर की शक्ति कम हो जाती है। इस स्थिति में कोई बढ़िया सेवा और परिश्रम करना चाहे तो उसमें कठिनाई हो सकती है। दूसरी बात है व्याधि। अगर व्याधि लग जाए तो भी धार्मिक आराधना और धार्मिक सेवा के कार्यों में कठिनाई आ सकती है। अनेक रोग बढ़ सकते हैं। तीसरी बात है इन्द्रिय शक्ति की हीनता। देखने, सुनने की शक्ति कम होना भी एक कमी है।
यह शरीर एक प्रकार की नौका है। इस नौका से भवसागर को तरना चाहिए। यह जीव नाविक है, संसार अर्णव-समुद्र है, जिसे महर्षि लोग तर सकते हैं। संयम और तप की साधना करें तो यह शरीर तारने वाली नौका है, वरना डुबोने वाली नौका है। कितने लोग हैं जो तट पर आकर भी नैया को डुबो देते हैं। इस नौका को निश्छिद्र बनाए रखें। मानव जीवन हमें मिला है – इसमें व्यक्ति यदि पाप अधिक करता है, तो यह नैया को डुबोने जैसा है। पता नहीं कितना भव भ्रमण करना पड़ सकता है। मानव जन्म मिलना भी कितना मुश्किल है, जैसे प्रज्ञाचक्षु का परकोटे से बाहर निकलना। 84 लाख जीव योनियाँ हैं। मनुष्य जन्म मोक्ष का द्वार है। मोक्ष जाना केवल मनुष्य गति से ही हो सकता है। मानव जीवन में धर्म की साधना की जाए तो मोक्ष निकट हो सकता है।
जो व्यक्ति पाप अधिक करता है, वह मानव जीवन को खो देता है। मानो सोने के थाल में खाना खाने की बजाय उसमें घर का कचरा डालकर बाहर फेंक देता है। मानो एक व्यक्ति को अमृत मिला, और वह उसका उपयोग पीने के बजाय उससे अपने पैर धोता है। मानो एक व्यक्ति को श्रेष्ठ हाथी मिला, और वह उसका उपयोग सवारी करने के बजाय लकड़ी का भार उठाने में करता है। एक चौथा व्यक्ति जिसे चिंतामणि रत्न मिल गया, वह उसका उपयोग सोची हुई वस्तु पाने के बजाय कौए को उड़ाने में कर देता है। ये सब मूर्खतापूर्ण कार्य हैं। मानव जीवन इनसे कम नहीं है। इसको गंवाने वाला भी मूर्ख ही है।
गृहस्थ जीवन में भी अच्छा जीवन जिया जा सकता है। अणुव्रत के छोटे-छोटे नियमों को अपनाने से जीवन अच्छा बन सकता है। जैन श्रावक बारह व्रत स्वीकार कर सकते हैं। ईमानदारी एक अच्छी नीति है। किसी के साथ धोखाधड़ी-बेईमानी न हो। जीवन में नैतिकता रहे, अहिंसा की भावना रहे। गुस्सा अधिक न करें, शांति से रहें। नशा-मुक्ति बनी रहे। जितना हो सके धर्म की साधना करें, प्रवचन सुनने का प्रयास करें। यों, मानव जीवन में जब तक सक्षमता है, अच्छा धर्म कार्य करें, तो आत्मा का कल्याण हो सकता है। पूज्यवर ने सद्भावना, नैतिकता और नशा-मुक्ति के संकल्पों को समझाकर स्थानीय लोगों से संकल्प स्वीकार करवाए। पूज्यवर के स्वागत में पटेल परिवार की ओर से घनश्यामभाई पटेल अपने उद्गार व्यक्त किए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।