धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

जैन आगमों में उत्कालिक अंग बाह्य आगमों में एक है 'नन्दी' सूत्र। इसमें पांच ज्ञान का विस्तृत वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम सूत्रकार ने भगवान महावीर को नमस्कार किया है। तदनन्तर जैन संघ, चौबीस जिन, ग्यारह गणधर, जिन प्रवचन तथा सुधर्मा आदि स्थविरों को स्तुति पूर्वक प्रणाम किया गया है। प्रारम्भ की कुछ मंगल गाथाएं इस प्रकार हैं-
१. जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जग्‌गुरू जगाणंदो। 
     जगणाहो जगबंधू जयइ जगप्पियामहो भयवं।।
२. जयइ सुयाणं पभवो तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ। 
    जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो।।
३. भद्दं सव्वजगुज्जोयगस्स, भदं जिणस्स वीरस्स । 
    भदं सुरासुरणमंसियस्स भद्दं घुयरयस्स।।
४. गुणभवणगहण! सुयरयणभरिय! दंसण-विसुद्धरत्यागाः। 
    संघणगरः भद्दं ते, अक्खंडचरित्त-पागाराः।।
मंगल के प्रसंग में प्रस्तुत सूत्र में जो स्थविरावली-गुरु-शिष्य परम्परा दी गई है वह पज्जोसवणाकप्पो (कल्पसूत्र) की स्थविरावली से भिन्न है। नन्दी सूत्र में भगवान महावीर के बाद की स्थविरावली इस प्रकार है-
१. सुधर्मा
२. जम्बू
३. प्रभव
४. शय्यम्भव
५. यशोभद्र 
६. सम्भूतविजय
७. भद्रबाहु
८. स्थूलभद्र
६. महागिरि
१०. सुहस्ती 
११. बलिस्सह
१२. स्वाति
१३. श्यामार्य
१४. शाण्डिल्य
१९. समुद्र
१६. मंगु
१७. धर्म
१८. भद्रगुप्त
१६. वज्र
२०. रक्षित
२१. नन्दिल
२२. नागहस्ती
२३. रेवतीनक्षत्र
२४. ब्रह्मद्वीपकसिंह
२५. स्कन्दिलाचार्य
२६. हिमवन्त
२७. नागार्जुन
२८. श्रीगोविन्द
२६. भूतदिन्न
३०. लौहित्य 
३१. दूष्यगणी
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मंगलाचरण में स्तुति कृत्य सम्पन्न कर शास्त्रकार ने परिषद् (श्रोताओं) का शैलघन, कुटक, चालनी आदि चौदह दृष्टान्तों से वर्णन किया है।
'नन्दी सूत्र' की रचना गद्य व पद्य दोनों में है। प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित विषय अन्य
आगमों में भी उपलब्ध होते हैं। द्वादशांगी श्रुत का परिचय समवायांग सूत्र में भी दिया गया है किन्तु वह नन्दी सूत्र से कुछ भिन्न है। ज्ञान का वर्णन 'भगवती' व 'प्रज्ञापना' में भी उपलब्ध होता है। ज्ञान के पांच प्रकारों का दो में समावेश करते हुए नन्दी में कहा गया है-संक्षेप में ज्ञान के प्रकार हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष के भी दो प्रकार हैं-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष।
इन्द्रिय प्रत्यक्ष के शरीत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष आदि पांच प्रकार तथा नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष के अवधिज्ञान
प्रत्यक्ष, मनः पर्यवज्ञान प्रत्यक्ष और केवलज्ञान प्रत्यक्ष-ये तीन प्रकार किए गए हैं। इनका विस्तृत विवेचन किया गया है।
अभिनिबोधिक-मतिज्ञान के दो प्रकार हैं-श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । अश्रुतनिश्रित मति-बुद्धि चार प्रकार की बतलाई गई हे-१. औत्पत्तिकी २. वैनयिकी ३. कर्मजा ४. पारिणामिकी।
औत्पत्तिकी पहले बिना देखे, बिना सुने और बिना जाने पदार्थों को तत्काल विशुद्ध रूप से ग्रहण करने वाली बुद्धि औत्पत्तिकी है। यह बुद्धि किसी प्रकार के पूर्व अभ्यास एवं अनुभव के बिना ही उत्पन्न होती है। इसका स्वरूप स्पष्ट करने के लिए अनेक रोचक दृष्टान्त दिए गए हैं। व्याख्या ग्रन्थों में उनका विस्तार मिलता है।