श्रमण महावीर

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

श्रमण महावीर

'गौतम! मैंने समता धर्म (साम्ययोग) की साधना की है। मैं उसी का प्रतिपादन करूंगा। मैं नारी और पुरुष की आध्यात्मिक क्षमता को परिपूर्णतया तुल्य देखता हूं, हीन या अतिरिक्त नहीं देखता। मैंने १७५ दिन भोजन नहीं किया। फिर चन्दनबाला के हाथ से भिक्षा लेकर भोजन किया। यह कोई अकारण आग्रह नहीं था। यह मेरा प्रयोग था, नारी जाति के पुनरुत्थान की दिशा में।'
'भंते! मैं अनुभव कर रहा हूं कि भगवान् का वह प्रयोग बहुत सफल रहा। चन्दनबाला को दीक्षित कर भगवान् ने नारी जाति के विकास का अवरुद्ध द्वार ही खोल दिया। भंते! भगवान् ने एक जाति के उदय का प्रयत्न किया, क्या इससे दूसरी जाति का अनुदय नहीं होगा?'
'गौतम! समता धर्म का साधक सर्वोदय चाहता है। वह किसी एक के हित-साधन से दूसरे के हित को बाधित नहीं करता। जब मनुष्य विषमता का पथ चुनता है। तभी हितों का संघर्ष खड़ा होता है। मैंने दासप्रथा का विरोध सर्वोदय की दृष्टि से किया। मेरा समता धर्म किसी भी व्यक्ति को दास बनाने की स्वीकृति नहीं देता। मैं दास बनाने में बड़े लोगों का अहित देखता हूं, नहीं बनाने में नहीं देखता।'
'भंते! भगवान् को कष्ट न हो तो मैं जानना चाहता हूं कि भगवान् ने समता के प्रयोग मानव-जगत् पर ही किए या समूचे प्राणी जगत् पर?'
'गौतम! मेरे समता धर्म में पशु-पक्षियों का मूल्य कम नहीं है। समूचे प्राणी जगत् को मैंने आत्मा की दृष्टि से देखा है। चंडकौशिक सर्प मुझे डसता रहा और मैं उसे प्रेम से देखता रहा। आखिर विषधर शांत हो गया। उसमें समता निर्झर प्रवाहित हो गया।'
'भंते! भगवान् अब भविष्य में क्या करना चाहते हैं?'
'गौतम! जो साधना-काल में किया, वही करना चाहता हूं। मेरे करणीय की सूची लम्बी नहीं है। मेरे सामने एक ही कार्य है और वह विषमता के आसन पर समता की प्रतिष्ठा ।'
'भंते! समता की प्रतिष्ठा चाहने वाला क्या शरीर के प्रति विषम व्यवहार कर
सकता है?'
'कभी नहीं, गौतम!'
'भंते! फिर भगवान् ने कैसे किया? बहुत कठोर तप तपा। क्या यह शरीर के प्रति समतापूर्ण व्यवहार है?'
'गौतम! इसका उत्तर बहुत सीधा है। जितना रोग उतनी चिकित्सा और जैसा रोग वैसी चिकित्सा। मैंने रोगानुसार चिकित्सा की, शरीर को यातना देने की कोई चेष्टा नहीं की।
'भंते ! संस्कार-शुद्धि ध्यान से ही हो जाती, फिर भगवान् को तप क्यों आवश्यक हुआ?
'गौतम! एकांगी कार्य में मेरा विश्वास नहीं है, इसलिए मैंने तप और ध्यान दोनों को साधा। मैं चाहता हूं एकांगिता की वेदी पर समन्वय की प्रतिष्ठा ।' '
भंते! क्या भगवान् को भोजन करना इष्ट नहीं था?'
'गौतम! मैं इसका उत्तर एकान्त की भाषा में नहीं दे सकता। साधना की पुष्टि के लिए मैंने भोजन किया। उसमें बाधा उत्पन्न करने वाला भोजन मैंने नहीं किया। यह सापेक्षता है। मैं अनाग्रह के दीवट पर सापेक्षता का दीप जलाना चाहता हूं।'
'गौतम! मैं मानता हूं भगवान् पार्श्व ने प्रखर ज्योति प्रज्वलित की थी। किन्तु आज वह कुछ क्षीण हो गई है। उसमें पुनः प्राण फूंकना आवश्यक है।'
'भंते ! बारह वर्ष तक आप अकेले रहे, अब आपको संघ-निर्माण की आवश्यकता
क्यों हुई?'
'गौतम! मुझे अहिंसा और सापेक्षता को जनता तक पहुंचाना है। उसे जनता के माध्यम से ही पहुंचाया जा सकता है। धर्म की उत्पत्ति और निष्पत्ति समाज में ही होती है, शून्य में नहीं होती।'