
स्वाध्याय
संबोधि
'चरण नयणे करि मारग जोवतां भूल्यो सकल संसार।
जेणे नयणे करि मारंग जोइए नयन ते दिव्य विचार।।'
आनंदघन जी ने कहा-चर्म-चक्षुओं से देखते हुए व्यक्ति मार्ग को नहीं देख सकते। मार्ग को देखने के लिए दिव्य नेत्र, अंतः चक्षु चाहिए। धर्म की अनुभूति भी अंतर्चक्षु से होती है, बाहर की आंखें धर्म को देख नहीं सकतीं। धर्म शब्द अनेकार्थक है। वस्तु के स्वभाव अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी वह अपने में अन्य अर्थों को भी समाहित रखता है। भ्रांति एकार्थता या स्पष्टता के कारण नहीं होती। वह होती है अस्पष्टता तथा अनेकार्थता के कारण। इसलिए सत्य को देखने के लिए साधारण आंखें पर्याप्त नहीं होतीं। दश विध धर्म में यह अनेकता स्पष्ट परिलक्षित होती है। स्वभाव, व्यवस्था, रीति-रिवाज या परंपरा आदि धर्म के अनेक अर्थ है। साधक को इन सबका विवेक कर स्वधर्म (आत्म-स्वभाव) में प्रवृत्त होना चाहिए। आत्म-धर्म सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र रूप है। प्रस्तुत श्लोक में आठवां, नौवां भेद आत्मधर्म है, शेष व्यवहार धर्म है।
जो प्रक्रिया या नियम आत्म-बोध को उजागर करे, अज्ञान का विध्वंस करे, वही धर्म है। धर्म से आत्मा आवृत्त नहीं होती। जो धर्म आत्मा को अनावृत्त न करे वह वस्तुतः धर्म नहीं होता। धर्म स्वयं को जानने की प्रक्रिया है। 'कन्फ्यूशियस' ने कहा- 'अज्ञानी दूसरों को जानने की कोशिश करता है और ज्ञानी स्वयं की खोज में लगा रहता है।' महावीर का समग्र बल आत्मा को जागृत करने में है। इस लिए यह स्पष्ट विवेक दिया है और कहा है-आत्म-स्वभाव के अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे
गृहीधर्मचर्यानामा पञ्चदशोऽध्यायः ।