संस्कृति व संस्कारों के बनें पहरेदार

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पचपदरा।

संस्कृति व संस्कारों के बनें पहरेदार

स्थानीय तेरापंथ भवन में साध्वी अणिमाश्री जी के सान्निध्य में परिवार प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में कन्या, किशोर, युवक-युवतियाँ एवं बुजुर्ग भाई-बहनों की उत्साहजनक उपस्थिति रही। साध्वी अणिमाश्री जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि हर व्यक्ति स्वयं और अपने परिवार का उत्कर्ष चाहता है। परंतु उत्कर्ष के लिए उन राहों पर चलना आवश्यक है जो आत्मिक विकास की ओर ले जाती हैं। उन्होंने कहा— परिवार में सहयोग की ‘सीमेंट’, मर्यादा की ‘ईंटें’, चारित्र का ‘चूना’, आत्मीयता की ‘आरसीसी’ और प्रेम के ‘दरवाजे’ हों, तो उस परिवार को उत्कर्ष के शिखर तक पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता। व्यक्ति परिवार में जन्म लेता है, वहीं पल्लवित-पुष्पित होता है, और अंत में भी वह परिवार की गोद में ही अंतिम सांस लेना चाहता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जीवन के विकास में परिवार की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि रिश्तों में मिठास हो, संस्कारों का सृजन और संवर्धन हो, बुजुर्गों के प्रति सम्मान भाव हो, छोटों को दुलार प्राप्त हो— तो वह घर अपने आप में मंदिर बन जाता है और उसका आँगन स्वर्ग का अनुभव कराता है।
साध्वीश्री ने समाज को सचेत करते हुए कहा— "आज हमें यह अवलोकन करना चाहिए कि हमारे संस्कार कहाँ जा रहे हैं? विवाह जैसे अवसरों पर संस्कृति को ताक पर रखने वाले आयोजन किए जाते हैं, और आप सब मौन होकर केवल देखते रह जाते हैं। जागो! नहीं तो यह अपसंस्कृति की हवा हमारे परिवार की जड़ों को हिला देगी। यदि आप परिवार में उत्कर्ष चाहते हैं तो संस्कृति व संस्कारों के सच्चे पहरेदार बनो।"
डॉ. साध्वी सुधाप्रभा जी ने अपने वक्तव्य में कहा— "जिस घर रूपी मंदिर में संस्कारों के दीप जलते हैं, वहाँ उत्कर्ष का आलोक अवश्य होता है। जिस परिवार रूपी धरती पर श्रम का हल चलता है, वहाँ सफलता रूपी मोती जन्म लेते हैं।" साध्वी समत्वयशा जी ने सुमधुर गीत के माध्यम से ‘खुशहाल परिवार’ की प्रेरणादायी गाथा प्रस्तुत की। साध्वी मैत्रीप्रभा जी ने मंच संचालन करते हुए कहा— "परिवार वह प्यार भरा नीड़ है, जहाँ दिनभर की थकान के बाद पंछी को विश्राम मिलता है।" साध्वी कर्णिकाश्री जी ने मंगलाचरण की मधुर प्रस्तुति दी।