आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

 

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

अंतर्यात्रा

अंतर्यात्रा हो यदा, चंचल चित्त प्रशान्त।
अंतर्मुखता से सदा, बनता नर निभर्र्ान्त॥
भीतर हो जब चेतना, भासित सहज स्वभाव।
रहे निरंतरता अगर, हट जाता परभाव॥

प्रश्‍न : साधक साधना करना चाहता है। साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैध्यान। ध्यान के लिए उपयुक्‍त आसन में बैठना और कायोत्सर्ग द्वारा शरीर को शिथिल करना इतना कठिन नहीं है, पर विश्‍व-भ्रमण के लिए निकले हुए चित्त को वापस लौटाना सीधी बात नहीं है। भ्रमणशील चित्त को भीतर लाने के लिए आप क्या प्रक्रिया सुझाते हैं?
उत्तर : ध्यान का अर्थ हैचित्त को भीतर लाना। अध्यात्म का अर्थ हैअंतर्मुखी बनना। ऐसी स्थिति में चित्त को एकाग्र बनाने के लिए कोई उपाय न करना साधना के पथ में भटकना है। क्योंकि चैतसिक एकाग्रता और निर्मलता के बिना साधना का विकास नहीं हो सकता। मनुष्य की वृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैंबाह्म और आंतरिक। अथवा इस तथ्य को यों भी कहा जा सकता है कि वृत्तियों के आधार पर मनुष्य दो प्रकार के होते हैंबहिर्मुखी और अंतर्मुखी। बहिर्मुखता स्वाभाविक है और अंतर्मुखता साधना-सापेक्ष है। बहिर्मुख बनने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, जबकि अंतर्मुखता के लिए तीव्र प्रयत्न की अपेक्षा रहती है। प्रत्येक आध्यात्मिक व्यक्‍ति के लिए अंतर्मुखी होना बहुत जरूरी है, पर ऐसा होना बहुत कठिन है। मनुष्य की इंद्रियाँ और मन बार-बार बाहर की ओर दौड़ते हैं। बाहर की ओर उनकी दौड़-धूप इतनी तीव्र होती है कि उन्हें भीतर मुड़कर देखने का अवकाश ही नहीं रहता। उन्हें भीतर रखने का जितना प्रयत्न किया जाता है, उनकी चंचलता उतनी ही बढ़ती जाती है। जब तक चंचलता कम नहीं होती, अंतर्मुखता नहीं आ सकती। जब तक अंतर्मुखता नहीं आती है, व्यक्‍ति को जानकारी नहीं हो सकती कि उसके भीतर क्या है? इस जानकारी के अभाव में वह इस सचाई को भी अनुभव नहीं कर सकता कि बहिर्मुखता के कारण उसकी शक्‍तियों का जागरण नहीं हो रहा है।
प्रश्‍न : मनुष्य अपने जीवन में शांति और सुख का अनुभव करे, यह आवश्यक है। पर यह बहिर्मुखता और अंतर्मुखता का दर्शन इतना जटिल है कि इसमें उलझने वाला अपनी स्वाभाविक शांति से भी हाथ धो बैठता है। यदि मनुष्य की चेतना बहिर्मुखी है तो उससे उसको क्या नुकसान उठाना पड़ता है?
उत्तर : बहिर्मुखता भ्रांतियों की जननी है। भ्रांत व्यक्‍ति सत्य को असत्य मानता है और असत्य को सत्य। उसे पदार्थ-जगत में सुख और सार का अनुभव होता है। इंद्रिय-विषयों के सुख को वह अपनी अंतिम मंजिल मानकर चलता है। उसका सारा आकर्षण बाह्य संसार में सिमट जाता है। यह स्थिति तब तक रहती है, जब तक उसकी भ्रांतियाँ नहीं टूटतीं। भ्रांति तोड़ने का एक ही रास्ता है, वह है अंतर्यात्रा का। इससे चित्त भीतर लौटता है, प्रशांत बनता है और विचारों के द्वंद्व से मुक्‍त होता है। जैसे दिन-भर का थका हुआ आदमी घर पहुँचकर थकान दूर करता है, वैसे ही भ्रांतियों में उलझा हुआ चित्त केंद्रित होकर स्वस्थ बनता है। जब तक भ्रांतियों का घेरा द‍ृढ़ है, तब तक जिस सुख और शांति का अनुभव करता है, वह भी उसका भ्रम ही है। भ्रम की घाटी में जो सघन अंधकार है उसको अंतर्यात्रा से उपलब्ध प्रकाश ही मिटा सकता है।
प्रश्‍न : अंतर्यात्रा से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर : अंतर्यात्रा का संबंध हमारी पृष्ठरज्जु से है। पृष्ठरज्जु हमारा केंद्रीय नाड़ी संस्थान है। इसके दोनों ओर दो नाड़ियाँ हैं, जो इडा और पिंगला नाम से पहचानी जाती हैं। इडा पैरासिम्पैथेटिक नर्व सिस्टम (परानुकंपी नाड़ी) है। और पिंगला सिम्पैथेटिक (अनुकंपी)। इन्हें चंद्रनाड़ी और सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। इडा पृष्ठरज्जु के बाईं ओर होती है तथा पिंगला दाईं ओर। केंद्रीय नाड़ी-संस्थान सुषुम्ना के नाम से प्रसिद्ध है। जब हमारी प्राणधारा सुषुम्ना से बाहर निकलकर इडा और पिंगला से प्रवाहित होने लगती है तब बहिर्मुखता आ जाती है। क्योंकि इससे चेतना का बिखराव होता है। प्राण-प्रवाह सुषम्ना से बहता है तो चेतना को भीतर जाने का मार्ग उपलब्ध हो जाता है। चेतना भीतर जाती है और साधक उसका अनुभव करने में सफल हो जाता है, वह क्षण आत्मसाक्षात्कार का क्षण होता है। उस क्षण में जो अनुभूति होती है, वह अनुभव का ही विषय है। इसलिए ध्यान में जाने से पूर्व चेतना को केंद्रित करने के लिए अंतर्यात्रा की प्रक्रिया अपने आप में विशिष्ट और अमोघ है।
प्रश्‍न : जो साधक इडा, पिंगला और सुषुम्ना को जानता ही न हो, वह अंतर्यात्रा कैसे करेगा? अंतर्यात्रा की सीधी-सी प्रक्रिया क्या है?
उत्तर : ध्यान-साधक के लिए शरीर तंत्र का ज्ञान होना भी जरूरी है। क्योंकि यह शरीर से आत्मा तक पहुँचने का रास्ता है। शरीर के ऊपर का भाव स्पष्ट है, पर उसके भीतर इतने पुर्जे हैं कि उनकी पूरी जानकारी बड़े-बड़े डॉक्टरों को भी नहीं होती। ध्यान एक ऐसा माध्यम है, जो आत्मा की भाँति शरीर के अज्ञात रहस्यों को भी प्रकट कर सकता है। किंतु यह ध्यान की बहुत ऊँची भूमिका तक पहुँचने पर ही हो सकता है। प्रारंभिक भूमिका में विशेष चार्ट्स और शरीर विशेषज्ञों के सहयोग से शरीर के प्रमुख-प्रमुख भीतरी अंगों का ज्ञान हो सकता है। उतना ज्ञान करने के बाद अंतर्यात्रा का क्रम सहज रूप से आगे बढ़ सकता है। अंतर्यात्रा में चित्त को बाह्य विषयों से प्रतिसंलीन कर शक्‍ति-केंद्र पर लाना होता है। उसके बाद उसे सुषुम्नामार्ग से ज्ञान-केंद्र तक ले जाना होता है। चित्त के द्वारा प्राणधारा का ऊर्ध्वारोहण इस यात्रा का उद्देश्य है। ज्ञान-केंद्र से फिर चित्त को शक्‍ति-केंद्र तक लाया जाता है और पुन: प्राणधारा के ऊर्ध्वारोहण हेतु ज्ञान-केंद्र तक पहुँचाया जाता है। शक्‍ति-केंद्र शक्‍ति का अक्षय केंद्र है। मस्तिष्क को जिस प्राण-ऊर्जा की जरूरत रहती है, वह अंतर्यात्रा से ऊर्ध्वारोहित होकर वहाँ पहुँच जाती है। इस क्रम को उदाहरण से समझा जा सकता है। कुएँ में पानी होता है। आदमी को पानी की अपेक्षा होती है। पानी नीचे है, वह उसे सीधा प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए बालटी को माध्यम बनाता है। बालटी नीचे जाती है। और अपने भीतर पानी भरकर ऊपर आ जाती है। वहाँ वह खाली होती है और पुन: कुएँ में पहुँचकर पानी ले आती है। बालटी के यातायात से आदमी को पर्याप्त पानी उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार चित्त प्राण-ऊर्जा को मस्तिष्क तक पहुँचाने के लिए बालटी का काम करता है।
(क्रमश:)