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संबोधि
ु आचार्य महाप्रज्ञ ु
आज्ञावाद
भगवान् प्राह
(क्रमश:) आसक्ति ही व्यक्ति को दु:खी बनाती है। वह आसक्ति चेतन पदार्थ के प्रति हो या अचेतन के प्रति। वर्तमान युग इसका ज्वलंत उदाहरण है। तनाव समस्या सर्जन करता है। तनाव विविध रोग उत्पन्न करता है। इसका समाधान अनासक्ति है। भोग के साथ जो प्रियता-अप्रियता का योग बनता है, उससे ही अपनी चेतना को दूर रखना है। इसका प्रयोग हैसंयम तथा तप। चेतना को अलग रखना तपस्या है। यह कठिन नहीं, किंतु अभ्यास साध्य होती है। अनासक्त रहने का संकल्प ही धीरे-धीरे भावना को पुष्ट करता है और जागृति को सशक्त बनाता है। उसकी परिणति चेतना की अनुभूति में होती है। उसके बाद अनासक्ति स्वत: सिद्ध हो जाती है। एक चेतना की आसक्ति अन्य समस्त आसक्तियों को उखाड़ फेंकती है। गीता, भगवान आदि में जहाँ अनन्यचेता की बात कही है वही बात चेतना की अनुभूति की है। चेतना की अनुभूति अनासक्ति बढ़ाती है, अनासक्ति से भावधारा निर्मल होती है। मन प्रसन्न होता है और आनंद की धारा सहज ही प्रस्फुटित हो जाती है।
धर्म क्यों अनिवार्य है?
धर्म की प्रासंगिकता सदैव अपरिहार्य रही है। धर्म है तो व्यवस्था है, धर्म है तो स्वच्छता है। यह स्वर हमारे कानों में सदा टकराता रहा है कि ‘धर्मेण हीना: पशुभि: समाना:।’ धर्म से हीन जीवन पशु तुल्य है। अध्यात्म दृष्टि से धर्म की उपादेयता असंदिग्ध है तो व्यवहार दृष्टि से भी असंदिग्ध है। धर्म चेतना को रूपांतरित करता है। व्यक्ति की भावधारा को बदलता है, व्यक्ति का कर्म विशुद्ध बनता है। उसका अंत:करण निर्मल बन जाता है। उसके प्रत्येक कर्म में धर्म की झलक प्रतीत होने लगती है। सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक, वैयक्तिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। धर्म उन सब पर नियंत्रण करता है। एक धार्मिक व्यक्ति कभी अनैतिक, अप्रामाणिक, भ्रष्ट आचरण वाला, दूसरों का शोषण करने वाला, दूसरों को दु:ख देने वाला, असत्य, मायावी, हिंसक, क्रूरकर्मा नहीं हो सकता है। इस दृष्टि से धर्म की अनिवार्यता को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। धर्म होगा तो मानव-मानव के मध्य न खाई होगी, न घृणा और न ऊँच-नीच का भाव होगा।
धर्म का क्या लाभ है?
धर्म का मौलिक लाभ हैआत्मशांति। सभी संतों, ॠषियों, अर्हतों ने शांति के लिए अपना जीवन समर्पित किया था, शास्त्रों की संरचना भी शांति के लिए है। वह जिसमें है, उसे किसी बाह्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं है। धर्म का उद्देश्य बाह्य पदार्थों की पूर्ति करना नहीं है। वह तो स्वभाव को उजागर करता है। शांति स्वभाव है। चेतना का धर्म है। इसलिए कहा है
या देवी सर्वभूतेषु, शांतिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:॥
जो समस्त प्राणियों के भीतर शांति के रूप में संस्थित है मैं उस परम शक्ति को नमन करता हूँ। अन्य लाभ हो या न हो उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। बाह्य लाभ के न होने पर भी एक शांत व्यक्ति के हृदय में कोई अंतर नहीं पड़ता। धर्म का बाह्य लाभ भी प्रत्यक्ष है। एक धार्मिक व्यक्ति तनाव से दूर रहता है, तनाव जनित, कषायजनित व्याधियाँ उसे ग्रस्त नहीं करतीं। वह सतत संतुलित जीवन जीता है। सामान्य व्यक्ति ‘लाभ’ शब्द के द्वारा केवल वस्तुनिष्ठ लाभ को ही महत्त्व देता है। उसकी दृष्टि वहीं केंद्रित होती है किंतु यह धर्म का मौलिक ध्येय नहीं है।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे
आज्ञावादनामा सप्तमोऽध्याय:।
(क्रमश:)