संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

मेघः प्राह

(31) प्रायश्चित्तच वाछामि, पूर्वमालिन्यशुद्धये।
          चेतः समाधये भूयः, कामये धर्मदेशनाम्।।

पहले जो मेरे मन में कलुष भाव आया, उसकी शुद्धि के लिए मैं प्रायश्चित्त करना चाहता हूँ और चित्त की समाधि के लिए आपसे पुनः धर्म-देशना सुनना चाहता हूँ।

उपसंहार
मेघकुमार का मन श्रामण्य के पहले ही दिन कुछेक तात्कालिक कारणों से अस्थिर हो गया। वह घर जाने के लिए तत्पर होकर भगवान् महावीर के पास आया और अपनी सारी भावना उनके सामने रखी। भगवान् महावीर ने उसके मानस को पढ़ा, उतार-चढ़ाव पर ध्यान दिया और उसे श्रामण्य में पुनः प्रतिष्ठापित करने के लिए प्रतिबोध दिया।
भगवान् की वाणी सुन मेघकुमार का आत्म-चैतन्य जगमगा उठा। उसने दुःख, दुःख-हेतु, मोक्ष और मोक्ष-हेतुµइन चारों को सम्यक् जान लिया और पुनः श्रामण्य में स्थिर हो गया।
अब उसकी आत्मा इतनी जागृत हो चुकी थी कि उसने अपने पूर्वकृत मनोमालिन्य की शुद्धि के लिए भगवान् से प्रायश्चित्त की याचना की। वह जान गया कि प्रायश्चित्त की आग में जले बिना सोना कंचन नहीं होता। उसने प्रायश्चित्त लिया और वह भगवान् के शासन में पुनः सम्मिलित हो गया।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे
बंदमोक्षवादनामा अष्टमोऽध्यायः।

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा

मेघः प्राह


(1) ज्ञानं प्रकाशकं तत्र, मिथ्यासम्यक्त्वकल्पना।
            क्रियते कोऽत्र हेतुः स्याद्, बोद्धुमिच्छामि संप्रति।।

मेघ बोलाµज्ञान प्रकाश करने वाला है। फिर मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान ऐसा जो विकल्प किया जाता है, उसका क्या कारण है? अब मैं यह जानना चाहता हूँ।
डेल्फी के मोनूर में देववाणी हुई कि सुकरात महान् ज्ञानी है। एथेंस वासी इससे बहुत प्रसन्न हुए। वे सुकरात के पास आए। उन्होंने देववाणी के संबंध में बताया। सुकरात ने कहाµ‘नहीं, मैं अज्ञानी हूँ। मैं जब नहीं जानता था तब मैं अपने को ज्ञानी समझता था और जब से जानने लगा हूँ तब से अपने को अज्ञानी समझता हूँ।’
एक यह अज्ञान है और एक अज्ञान ज्ञान के पूर्व का होता है। दोनों में बड़ा अंतर है ज्ञान के पूर्व का अज्ञान ज्ञान का आवरण है, ज्ञान का अभाव है और ज्ञान के अनंतर का अज्ञान आवरण या अभाव नहीं है। किंतु नहीं जानना है। जो देखा है, अनुभव किया है, जाना है वह इतना महान् है कि उसके संबंध में कहना कठिन है।
जिस पर अज्ञान का आवरण अधिक होता है उसे विवेक नहीं होता। अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना उसके लिए अशक्य होता है। वह तमोमय जीवन जीता है। वह नारकीय जीवन है। इसलिए संतजनों ने मानव को आलोक की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने कहाµ‘जो उस परम सत्य को जान लेता है उसके हृदय की ग्रंथि भिन्न हो जाती है, संशय छिन्न हो जाते हैं और समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं।’ ‘नाणं पयासकरं’µज्ञान प्रकाशक है, बहुत सारवान् सूत्र है। सम्यग्ज्ञान के आलोक में जन्म-जन्मांतरों का संचित तम एक क्षण में नष्ट हो जाता है।

(क्रमशः)