दर्पण जैसा जीवन जीना सीखें

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दर्पण जैसा जीवन जीना सीखें

चंडीगढ़।
कला की उत्पत्ति भी मनुष्य की सौंदर्योपासना का परिणाम है। लेकिन मनुष्य-समाज की अन्य प्रवृत्तियाँ जैसे-जैसे जटिल बनती जाती हैं, वैसे-वैसे कला की धारणा में भी परिवर्तन होता रहता है। मनुष्य की मूल प्रवृत्ति आत्मरक्षा है, इसलिए उसकी चेष्टा अपनी जान बचाने के साधन एकत्र करने की है। अन्न और वस्त्र जीवन-यापन के मुख्य साधन हैं। यही कारण है कि हम कृषि और कताई को मूल उद्योग मानते हैं। किंतु मनुष्य की जिंदगी व्यक्तिगत ही नहीं है। उसकी सामाजिक जिंदगी भी है। उसी प्रकार सफाई को सामाजिक जिंदगी का मूल उद्योग मानना पड़ेगा। यह विचार मनीषी संत मुनि विनय कुमार जी ‘आलोक’ ने अणुव्रत भवन, तुलसी सभागार में व्यक्त किए। मुनिश्री ने आगे कहा कि जरूरत है हम दर्पण जैसा जीवन जीना सीखें। उन सभी वातायनों और खिड़कियों को बंद कर दें, जिनसे आने वाली गंदी हवा इंसान नहीं रहने देती।