भगवान महावीर एक कालातीत संस्कृति

भगवान महावीर एक कालातीत संस्कृति

समणी स्वर्णप्रज्ञा
भारतीय संस्कृति ऋषि और कृषि प्रधान संस्कृति रही है। समय-समय पर विभिन्न ऋषियों, मुनियों, संन्यासियों और पैगंबरों ने अवतार लेकर इस धरा को पुनीत एवं पावन बनाया। उसी परंपरा में जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर का नाम भी तेजस्वी सूर्य की तरह है, जिन्होंने अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करके कण-कण को आलोक से आपूरित किया। वे राजवंशीय भौतिक वातावरण में जन्म लेकर भी उस भोगवादी संस्कृति के अनुगामी नहीं बने। संन्यस्त जीवन की बीहड़ राहों पर चरणन्यास कर एक ऐसा राजपथ बना दिया, जिस पर चलने वाले हर व्यक्ति भगवान् के प्रतिरूप बने। उनके वर्धमान से महावीर बनने की यात्रा पुरुषार्थ की सफलतम यात्रा है। भौतिकता से अभौतिकता की, लौकिकता से अलौकिकता की तथा विकृति से संस्कृति की दिव्य निशानी है।
जब-जब उनके जीए हुए जीवन पृष्ठों को पढ़ने की कोशिश करते हैं, तब एक स्वाभाविक प्रश्न उभरता है कि भौतिक संपदा से युक्त राजकुल परिवार में जन्म लेकर भी अकिंचन परिव्राजक का जीवन क्यों अंगीकार किया? अपने अग्रज भाई की मनुहारों को क्यों अस्वीकृत कर दिया? उनको अपनी पत्नी और बेटी का मोह क्यों नहीं लुभाया? ऐसे कई प्रश्न जिज्ञासु मन में उभर सकते हैं। मेरी दृष्टि में इनका एक ही समाधान हो सकता है कि जिनके मन में सम, शम और श्रम की लौ प्रज्ज्वलित हो जाती है वे हवा की अनुकूलता को देखे बिना प्रतिस्रोतगामी बनते हैं।
भगवान महावीर की जीवन-गाथा संयम, साधना, समर्पण, संकल्प, सहिष्णुता की अमिट स्याही से लिखित थी, जो आज भी अमरता का संदेश देती है। उनकी साधकता की वीणा में जहाँ आत्मा के मृदु गीत स्फुरित होते हैं, वहाँ सामाजिकता, पारिवारिकता के वातावरण को स्वस्थ बनाने के बीज भी आज प्रस्फुटित हो रहे हैं। वे अहिंसा के पुरोधा थे, इसलिए उन्होंने प्रत्येक प्राणी चाहे वह छोटे से छोटा कीट, पतंगा भी क्यों न हो, उनमें भी मनुष्य जैसी आत्मा की संजीवता है। वह भी सुख का इच्छुक और मृत्यु से भी भयभीत रहता है। उन्होंने एक शाश्वत सत्य को उजागर करते हुए कहा कि जैसे मुझे जीने का अधिकार है, वैसे दूसरों को भी है। अतः दूसरों के अधिकारों का हनन करना हिंसा है। अपनी अहिंसा के माध्यम से पर्यावरण सुरक्षा की बात कही। बढ़ते हुए औद्योगिकरण से वन दोहन एवं पानी और वायु का प्रदूषण संपूर्ण विश्व के समक्ष एक समस्या है। इसलिए उन्होंने पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीवों की प्ररूपणा करके उनके बचाव और सुरक्षा को अहमियत प्रदान की। वर्तमानिक युग युद्ध और आतंक के दहशत से काँप रहा है। ऐसी स्थिति में महावीर की अहिंसा, प्रेम, शांति और अभयता की वर्षा करके मानव मन की पीड़ा को दूर कर रही है।
भगवान् महावीर ने अपरिग्रह के जरिए देश, समाज एवं परिवार में पनप रही आर्थिक विषमता को समतल धरातल दिया। वस्तुतः जहाँ एक तरफ धन का अंबार हो तथा एक तरफ भूखमरी हो, वहाँ समरसता कैसे पनप सकती है। आर्थिक विषमता समस्त बुराइयों की जनक है। उपभोग के साधनों पर एकाधिकार होना, बाह्य आडंबरों पर पानी की तरह पैसा बहाना, अनैतिक कार्यों से धन संग्रह करना आदि बिंदु समाज की नींवों को कमजोर करता है। यह सच्चाई है कि पैसे से रोटी खरीद सकते हैं, भूख नहीं, दवाई खरीद सकते हैं, पर मौत नहीं, मकान खरीद सकते हैं, पर भाईचारा नहीं। अतः ऋषियों द्वारा परिभाषित वाणी ‘संतोष ही परम सुख’ में अपरिग्रह की आत्मा निहित है।
महावीर का अनेकांतवाद, समन्वय का वातावरण सृजित करता है। व्यक्ति की आग्रहवृत्ति, कलह, विद्वेष तथा आवेश को संपुष्ट करती है। परिणामतः वह अपने समक्ष दूसरे को बौना समझता है और दूसरों के सहअस्तित्व को नकार देता है। महावीर का यह संदेश बड़े-छोटे, अणु-महान्, लघु-विशाल, अपने-पराए तथा अस्तित्व-नास्तित्व को एक साथ अपनी भूमिका में प्रतिष्ठित करके एक साथ पनपने का स्थान देता है। महावीर ने कहाµएक दृष्टिकोण से मैं सही हूँ तो दूसरे दृष्टिकोण से तुम भी सही हो। उन्होंने अनेकांत के धागे से टूटते परिवार, राष्ट्र, समाज और रिश्तों को बाँधा। इसीलिए महावीर का अंतःकरण कालातीत, देशातीत और नामातीत है। अतीत में महावीर के संदेशों की जितनी अपेक्षा थी, आज भी उससे ज्यादा है।