उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

ु आचार्य महाश्रमण ु

आचार्य कालक (द्वितीय)

भडौंच में उस समय उनके भानजे बलमित्र का राज्य था। उसका छोटा भाई भानुमित्र युवराज था। आचार्य ने दोनों को राजा की नीचता बताकर उज्जयिनी पर चढ़ाई करने को तैयार कर लिया। परंतु कुछ राजनीतिविदों ने गर्दभिल्ल का नाश करने के लिए इस सेना को अपर्याप्त बताकर और सेना जुटाने का सुझाव दिया। फलस्वरूप आचार्य पारिस कुल के शक शासकों को अपने में मिलाने के लिए उद्यत हो गए। आचार्य ने सिंधु नदी के पार जाकर शक शासकों को निमित्त और ज्योतिष से प्रभावित करके भक्‍त बना लिया। उन्हें साथ लेकर और भड़ौंच से अपने भानजों को बुलाकर प्रबल दल-बल के साथ उज्जयिनी पर आक्रमण का दिया। राजा गर्दभिल्ल अपनी गर्दभी विद्या के अहंकार में डूबा हुआ था। गर्दभी विद्या की अधिष्ठात्री देवी गर्दभी के समान मुख की थी। परंतु आचार्य इस विद्या के गुप्त रहस्यों को जानते थे तथा यह भी जानते थे कि इसके प्रभाव को कैसे नष्ट किया जा सकता है। आक्रमण की सूचना पाकर राजा गर्दभी को किसी उच्च स्थान पर शत्रु सेना की ओर मुख करके स्थापित करता और स्वयं तेला करके उसकी आराधना करता। तप:साधना पूरी होते ही गर्दभी का मुख खुल जाता और वह उच्च स्वर में रेंगने लगती। शत्रु सेना का सैनिक, अश्‍व, हाथी आदि जो भी वह शब्द सुनता वह तत्काल ही मुँह से रक्‍त उगलता हुआ पृथ्वी पर गिर जाता, मूर्च्छित हो जाता। आचार्य यह सब जानते थे। अत: 108 अति कुशल शब्दवेधी धनुर्धरों को सज्जित करके बैठा दिया। ज्यों ही गर्दभी ने रेंकने को मुँह खोला त्यों ही सबने एक साथ बाण छोड़कर उसका मुँह बाणों से भर दिया। इस प्रकार गर्दभी विद्या का प्रभाव पूर्णत: नष्ट हो गया।
भीषण युद्ध में परास्त बने गर्दभिल्ल को बंदी बनाकर सरस्वती को मुक्‍त करा लिया गया। आचार्य ने शकराज को उज्जयिनी के सिंहासन पर बिठा दिया और गर्दभिल्ल को राज्यच्युत करके सुख की साँस ली।
इसके चार वर्ष बाद ही विक्रमादित्य ने उज्जयिनी पर अपना शासन स्थापित कर लिया। राज्यारोहण के समय विक्रमादित्य ने वीर निर्वाण संवत् 470 से विक्रमी संवत् चलाया।
आचार्य कालक ने संघ एवं सती सरस्वती के सतीत्व की रक्षार्थ महा आरम्भजन्य पाप किया था उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्‍चित्त किया तथा बहन को भी पुन: दीक्षित किया।
इन्हीं कालकाचार्य को चतुर्थी की संवत्सरी की स्थापना करने वाला माना गया है। कारण बताया गया है कि भड़ौंच नगर से इनके भानजों (बलमित्र, भानुमित्र) ने एक बार चतुर्मास में विहार करने के लिए इन्हें विवश कर दिया। आचार्य कालक ने प्रतिष्ठानपुर नगर में जाकर शेष पावन बिताया। वहाँ के राजा सातवाहन ने पंचमी को इंद्र महोत्सव होने से षष्ठी को संवत्सरी पर्व की आराधना करने की प्रार्थना की। पर आचार्य ने उसे असंभव बताकर चतुर्थी को पर्वाराधन किया। कई विद्वान् गर्दभिल्ल पर चढ़ाई करने में बाधा आने के कारण चतुर्थी को संवत्सरी की, ऐसा भी मानते हैं।
परंतु यह सुनिश्‍चित है चतुर्थी को संवत्सरी का प्रवर्तन आर्य कालक द्वितीय ने किया। यह समय था वीर निर्वाण संवत् 471 ।

आचार्य खपुट

आचार्य खपुट अपने युग के एक प्रभावी आचार्य थे। निशीथचूर्णि में आठ प्रकार के व्यक्‍तियों को धर्मप्रभावक माना है। वहाँ विद्याबल से संघ प्रभावकों में आर्य खपुट का नाम प्रस्तुत किया है। विविध विद्यासंपन्‍नता के कारण उन्हें आचार्य सम्राट् भी कहा गया है।
(क्रमश:)